Wednesday, October 31, 2012

व्यंजना को लफ्जों से सजाऊं



तुम उदधि मै  सिंधुसुता सी
गहराई में समां जाऊं

तुम साहिल में तरंगिणी सी 
बहती धारा बन  जाऊं 

तुम अम्बर मै धरती बन
युगसंधि में खो जाऊं

तुम शशिधर  मै गंगा सी 
बस शिरोधार्य  हो  जाऊं

तुम आतप  मै छाँह  सी
प्रतिछाया ही  बन जाऊं

तुम दीपक  मै बाती  बन
नूर दे आपही जल जाऊं

तुम रूह हो मेरे जिस्म की
तुम्हारी अंगरक्षी बन जाऊं  

न होगा  तम जीवन में कभी 
चांदनी बनके खिल जाऊं

तुम धड़कन हो मेरे दिल की
स्मृति बन साँसों में बस जाऊं

मौत भी न  छू सकेगी मेरे माही
हर्षित मै  रूखसत  हो जाऊं

न कोई गीत ,न बहर, न  गजल
व्यंजना  को लफ्जों  से सजाऊं 

      -----शशि पुरवार

Monday, October 22, 2012

माँ का आशीष शुभ दुलार





सब बच्चों को माँ से प्यार
माँ का आशीष
शुभ दुलार

आदिशक्ति मातृभवानी
जगतजननी कृपनिधानी
शक्तिस्वरूपा सिंहवाहिनी
महिषासुर का किया संहार
देवों का बेड़ा पार
माँ का आशीष
शुभ दुलार

कोमलांगी कमलवासिनी
विश्वव्यापी विश्वमोहिनी
शुभमंगल वरदायिनी
तेरे गुण गाए संसार
भक्तों का बेड़ा पार
माँ का आशीष
शुभ दुलार

काली, दुर्गा औ सरस्वती
अनेक रूपों में भगवती
नवरात्रि का त्यौहार
माँ का सोलह शृंगार
मन मंदिर में
बजी झंकार

-शशि पुरवार

Thursday, October 18, 2012

लघुकथा --पतन , माँ का एक यह रूप भी .........

       लघुकथा --   पतन

      भोपाल जाने के लिए बस जल्दी पकड़ी और  आगे की सीट पर सामान रखा था कि  किसी के जोर जोर से  रोने की आवाज आई, मैंने देखा  एक भद्र महिला छाती पीट -पीट  कर जोर जोर से रो रही थी .

" मेरा बच्चा मर गया ...हाय क्या करू........ कफ़न के लिए भी पैसे नहीं है ..
मदद करो बाबूजी , कोई तो मेरी मदद करो , मेरा बच्चा ऐसे ही पड़ा है घर पर ......हाय मै  क्या करूं  ."
                   उसका करूण  रूदन सभी के  दिल को बैचेन कर रहा था , सभी यात्रियों  ने पैसे  जमा करके उसे दिए ,
 " बाई जो हो गया उसे नहीं बदल सकते ,धीरज रखो "
 "हाँ बाबू जी , भगवान आप सबका भला करे , आपने एक दुखियारी की मदद की ".....

ऐसा कहकर वह वहां से चली गयी , मुझसे रहा नहीं गया , मैंने सोचा  पूरे  पैसे देकर मदद कर  देती हूँ , ऐसे समय तो किसी के काम आना ही चाहिए .
  जल्दी से पर्स  लिया और  उस दिशा में भागी जहाँ वह महिला गयी थी . , पर जैसे ही बस के पीछे की दीवाल  के पास  पहुची  तो कदम वही रूक गए .
                     द्रश्य ऐसा था कि  एक मैली चादर पर एक 6-7 साल का बालक बैठा था और कुछ खा रहा था . उस  भद्र महिला ने पहले अपने आंसू पोछे ,  बच्चे को  प्यारी सी मुस्कान के साथ , बलैयां ली  , फिर सारे पैसे गिने और  अपनी पोटली को  कमर में खोसा  फिर  बच्चे से बोली -
  "अभी आती हूँ यहीं बैठना , कहीं नहीं जाना  "
और पुनः उसी  रूदन के साथ दूसरी बस में चढ़ गयी .
        मै अवाक सी देखती रह गयी व  थकित कदमो से पुनः अपनी सीट पर आकर  बैठ गयी . यह नजारा नजरो के सामने से गया ही नहीं  ,लोग  कैसे - कैसे हथकंडे अपनाते है भीख मांगने के लिए , कि  बच्चे की इतनी बड़ी  झूठी कसम भी खा लेते है , आजकल लोगो की मानसिकता में कितना पतन आ गया है .

          --------शशि पुरवार       
    

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मित्रो आप सभी को नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाये ...............स्वास्थ परेशानी के चलते ज्यादा समय नहीं दे पा रही हूँ ....पर जितना भी हो सकेगा आपके ब्लॉग पर पढने आती रहूंगी , तब तक के लिए क्षमाप्राथी हूँ , यह सत्य घटना आपके समक्ष .............लघुकथा के रूप में ..... अपना अमूल्य स्नेह बनाये रखें .-शशि 

Friday, October 12, 2012

सिंदूरी आभा


1सिंदूरी आभा
सुनहरा  गहना
साँझ है सजी .

2 अम्बर संग
अवनि का मिलन
संध्या बेला में

3 सुनहरा है
प्रकृति का बंधन
स्वर्णिम पल

4 उषाकाल में
केसरिया चुनर
हिम पिघले . 

5 शूल जो मिले 
 हम तो नहीं हारे
  छु के गगन .


6 छु लिया जहाँ
मिला श्रम का मोल
सुहानी भोर 


7 सुनहरा है
आने वाला सबेरा
नया जीवन

8 पाया है जहाँ 
सुनहरा आसमां
कर्मो से सजा .


9 हरीतिमा की 
भीनी चदरिया 
 सावन भादो 

10 नयना प्यासे 
प्रभु दरसन के 
सुनो अरज 

11 पाखी है मन 
चंचल चितवन 
 नैना सलोने .

 
-शशि पुरवार 


Saturday, October 6, 2012

मेरे सपनो का ताजमहल


मेरे ख्वाबों  का
सुन्दर आशियाना
प्यार की रेशमी डोर
विश्वास का खजाना
सतरंगी सपनो से
आने वाले कल की
झालर बनाना
बचपन के पलों को
सहेज पिटारे में रख
पंछी बन उड़ जाना ,
आकांशाओ के वृक्ष पे
आशा का दीपक रखना
पूर्ण ,अपूर्ण अनुभूतियों की
एक ख्वाबगाह बनाना
दीवारों पे अपने नाम का
दुधियाँ रंग सार्थक कर
शशि की शीतलता
को जग में फैलाना। 
अमावस की काली रात में
कलम से उकेरे शब्दों की
शीतल किरणों सा प्रकाश
दीप प्रज्वलित करना
जीवन की राहो में
पी का साथ निभाना। 


कांटो को चुन ,उसकी
राहो में फूल बिछाना ,
नहीं कोई चाहत दिल में
बस मेरे जाने के बाद तुम
मेरे सपनो का ताजमहल
मत बनाना , खुश रहना
मुझे मेरी कलम में ही ढूंढ लेना
मै अविरल सी बहती हूँ मेरे
ख्वाबो के ताजमहल में
जब जी चाहे मेरे
सपनो की घाटियों में
एक फूल ले चले आना
सदा अमर रहूंगी
शब्दों के माध्यम से
जब जी चाहे चाहे
आकर मिल जाना .
--शशि पुरवार

Thursday, October 4, 2012

माँ का अंगना प्यारा रे


माँ का अंगना प्यारा रे........
प्यारा सलोना

दुनियां में रखा जब पहला कदम
माँ के आँचल में
खिला बचपन
सपनो को लगे
सुनहरे पंख ........!,
गुरु बनके ज्ञान दे दिया रे
हुआ सफल जीवन,

माँ का आशीष प्यारा रे

प्यारा सलोना

जीवन की राहो में बढ़ते कदम

मुश्किल घडी में
डरता यह मन
कैसे लड़ेंगे
तुफानो से हम .........,
तपते मन को सहला दिया रे
बनके शीतल पवन ,

माँ का साथ लागे प्यारा रे

प्यारा सलोना

स्नेह वात्सल्य से भरा बंधन

शादी कर माँ ने
निभाया धरम
आँखों में मोती
छुपा के किया भ्रम ......... ,
कालजे पे पत्थर रख लिया रे
बेटी बने सुहागन

माँ का प्यार बड़ा न्यारा रे

प्यारा सलोना

पल पल माँ को ढूंढें नयन

माँ की छाया
कैसे बने हम
दिल में महकती
माँ की छुअन......... ,
पीहर की तड़प बढ़ा गयी रे
चली यादों की पवन

माँ का अंगना प्यारा रे

प्यारा सलोना .
3.10.12
--------- शशि पुरवार

Wednesday, September 26, 2012

कैसा संहार .?


निति नियमो को
ताक  पर रखकर 
संरक्षक बना है भक्षक
ये कैसी हार 

नोच लिए रूह के तार
भेड़िया बन खींची है खाल
थमा के मीठी गोली
खेली है खूनी होली
टूट गयी विश्वास की डोर
बिखरा है लहु चारो ओर 
अपने जिय के टुकड़ों का 
 ये कैसा संहार

टूट रही लज्जा की गागर 
फट रहा जिय का सागर
कैसे छुपाये नाजुक काया
पीछे पड़ा  है एक  साया
बीच बाजार बिकती साख
भेद रही गिद्ध  की आंख
खतरा फैला है  चहुँ और 
सफेदपोश है निशाचर 
ये कैसा आधार  

निति नियमो  को
ताक पे रखकर हुआ 
ये  कैसा व्यवहार.
---शशि पुरवार  


Sunday, September 23, 2012

आँखों का धोखा

 
हाइकु
1 तरसे नैना
परदेश सजन
कैसे पुकारू
 
2 नैना प्यासे
प्रभु दरसन के
सुनो अरज .

3 आँखों की हया
लज्जा की चुनर
नारी गहना

4 मोह औ माया
अहंकार का पर्दा
आँखों का धोखा .

5 पाखी है मन
चंचल चितवन
नैना सलोने . 
 
6
अधूरी प्यास
अजन्मी ख्वाहिशे
वक़्त है कम .

7
रीता ये मन
कोख का सूनापन
अतृप्त आत्मा .

8
अधूरापन
ज्ञान के खिले फूल
खिला पलाश .

9
अतृप्त मन
भटकता जीवन
ढूंढें किनारा .
 
10
नन्हे कदम
मोहिनी म्रदुहास्य 
खिला अंगना .
11
अश्क आँखों के
सूख गए है जैसे
रीता झरना .
12
पीर तन की
अब सही न जाती 
 वृद्धा जीवन
13
आँखों में देखा
छलकता पैमाना
अहंकार का .
14
अंतरगित
सन्नाटे में बिखरी
तेज चीत्कार .
15
सुख के सब
होते है संगी- साथी
स्वार्थी जहान .
----शशि पुरवार
 

Tuesday, September 18, 2012

जाने कहाँ आ गए हम



जाने कहाँ आ गए हम
छोड़ी धरती
चूमा गगन .

आकांशाओ  के  वृक्ष  पर  
बारूदो का  ढेर बनाया
तोड़े पहाड़ , कटाये   वन 
दूषित कर पवन ,रोग लगाया
सूखी हरीतिमा की  छाँव
सिमटे  खेत , गाँव
बना  मशीनी इंसान
पत्थर की मूरत भगवान .

जग का बदला स्वरुप
नए उपकरण ,
मशीनी इंसान ,
रोबोट सीखे काम ,
नए नए  आविष्कार
खूब फला कृत्रिम व्यापार 
मशीनी  होते काम
मानव  चाहे पूर्ण  आराम
माथे की मिट जाये  शिकन .

भर बारूद , रोकेट
संग, उड़  चला अंतरिक
विधु  पे पड़े कदम 
मिला नया मुकाम ,
पर धुएं में मिले जहर से 
कम होती ओजोन की  छाँव
सौर मंडल पर भी
प्रदुषण के बढ़ते कदम
यह हार है या जीत
जब खतरा बन रही
जीवन पर , अविष्कारों 
की बढती भीड़
न बच सकी धरणी 
न छूटा  गगन .
-------------शशि पुरवार

Saturday, September 15, 2012

मेहंदी लगे हाथ......!



मेहंदी लगे हाथ कर रहें हैं 
पिया का इंतजार
सात फेरो संग माँगा है 
उम्र भर का साथ. 


यूँ  मिलें फिर दो अजनबी
जैसे नदी के दो किनारो
का हुआ है संगम, फिर
बदल गयी हैं  दिशाए
जीवन की मधुरम हवाए 

और 
बहने लगी एक जलधारा .

नाजुक होते हैं यह रिश्ते
कांच से कच्चे धागों से बंधी हुई
विश्वास की डोर, दिलो की प्रीत 

,पर
कठिन  हैं जीवन की
पथरीली राहों का सफर.  
मजबूती के साथ चल रहे हैं हम
एक गाड़ी के दो पहिये; जिसे
तोड़ न सके कोई कंकर

प्रेम की इन गलियों में
उलफत कभी न होगी कम
बस इक खलिस है
ह्रदय में; 

 सनम
अंतिम ख्वाहिश मानकर
जिगर में मत रखना कोई रंज
पहले इस जहान  से रुकसत होंगे
 हम , 
इक सुहागन बन कर ही
निकले मेरा दम  

खाली रह जाएँ ना हाथ
करतल पे लगा देना मेहंदी

चढ़ जाये पुनः प्रेम का रंग ; फिर
यह जन्म न मिलेगा बार बार .
----------- शशि पुरवार

Wednesday, September 12, 2012

जग की जननी है नारी ........!

 
जग की जननी है नारी
विषम परिवेश में नहीं हारी 

काली का  धरा रूप , जब
संतान पे पड़ी विपदा भारी
सह लेती काटों का दर्द
पर हरा देता एक मर्द

क्यूँ रूह तक कांप जाती
अन्याय के खिलाफ
आवाज नहीं उठाती
ममता की ऐसी मूरत
पी कर दर्द हंसती सूरत 
छलनी हो रहे आत्मा के तार
चित्कारता ह्रदय करे पुकार
आज नारी के अस्तित्व का सवाल
परिवर्तन के नाम उठा बबाल 
वक़्त की है पुकार
नारी को भी मिले उसके अधिकार
कर्मण्यता , सहिष्णु , उदारचेता
है उसकी पहचान
स्वत्व से मिला  सम्मान .

जग की जननी है नारी 
विषम परिवेश  में नहीं हारी .
---------------- शशि पुरवार

Thursday, September 6, 2012

मेरे मन का अभिमन्यु ,


जीवन चक्र
कठिन है राहों की डगर
खिले हैं जो फूल, उन्हें
शूल का भी सहना होगा दर्द।
सुख का छोटा सा पल

बीत रहा है यूँ ,
वक़्त का पहिया
तेजी से घूमता हरपल .

दुःख से रीत जाते

सारे एहसास
निकल जाता है वक़्त
बिखरते है ख्वाब ,पर
कर्म की वेदी पर
नहीं हारता
मेरे मन का अभिमन्यु ,

आशा का छोटा सा दिया

जगमगाता है काली रात में
तम में भी रहता
रौशनी का बसेरा ,
वक़्त का होता पग -फेरा
हर रात के बाद है सबेरा
लिखना यूँ नया इतिहास
रौशन हो कलम से
रचे एहसास
एक नयी शुरुआत
सुनहरी किरणों का प्रकाश
नए शून्य की तलाश
एक नया आकाश .

-----शशि पुरवार

Monday, September 3, 2012

जीवन के रंग ...!





चोका 

यह जीवन
है गहरा गागर
सुख औ दुःख
गाड़ी के दो पहिये
धूप औ छाँव
सुख के दिन चार
आँख के आँसू
छलते हरबार
जो पाँव तले 
खिसकती धरती
अधूरी प्यास
पहाड़ -सा ह्रदय
शोक -विषाद
अत्यंत मंथर हैं
बोझिल पल 
वक़्त की रेतघडी
धीमा है पल
संकल्पों का संघर्ष
फौलादी जंग
आगमन -प्रस्थान
अभिन्न अंग
मुट्ठी से फिसलते
सुखद पल
वक़्त का पग -फेरा
बहता जल 
पतझर -सा झरे
दुर्गम पथ
बदलता मौसम
भोर के  पल
सुनहरी किरण
परिवर्तन
मोहजाल से मुक्त
वर्तमान के
खुशहाल लम्हों का
करो  स्वागत
छिटकी है मुस्कान
जीवन में उदित
नया है रास्ता
खुशियों की तलाश
सुनहरी सौगात .

-------------------

हाइकु ---
1 चांदनी रात
 नयना बहे नीर
  दुःख की पीर .

2 रिश्तो में मिला
पल पल छलावा
  मन का  दर्द .
3 वक़्त के साथ
भर जाते  है जख्म
 रिसते  घाव .
4 सुख खातिर
करे सारे जतन
कठिन तप
5 पतझर से
झरते है नयन
प्रेम अगन
6
रिश्तो की लड़ी
बिताये हुए पल
है जमा पूंजी .
7
अश्क आँखों के
सुख गए है अब
रीता झरना
8 पीर तन की
अब सही न जाती
वृद्धा आश्रम
9 आँखों में देखा
छलकता पैमाना
सुखसागर
10  खामोश रात्र
सन्नाटे में बिखरी
तेज चीत्कार
11 सुख के सब
होते है संगी साथी
स्वार्थी जहान .
12 तीखे संवाद
दबी है सिसकार
मन की हूक .
13
नन्हे कदम
मोहिनी म्रदु हास्य
खिला अंगना .
15 यह जीवन
आत्मा होती अमर
चंचल मन .
16 तेरे आने की
हवा भी दे सूचना
धडके दिल .
17
सूना अंगना
महका गुलशन
खिले जो फूल  .
18 खिली मुस्कान
 मासूम बचपन
  मन मोहन .
 ----शशि पुरवार 



Saturday, September 1, 2012

कुण्डलियाँ

1
  चक्षु ज्ञान के खोलिए,जीवन है अनमोल.
  शब्द बहुत ही कीमती,सोच-समझ कर बोल.
  सोच-समझ कर बोल,बिगड़ जाते हैं नाते.
  रहे सफलता दूर, मित्र भी पास न आते.
   मिटे सकल अज्ञान, ग्रन्थ की बात मान के.
  फैलेगा आलोक,खोल मन चक्षु ज्ञान के.

 2
 संगति का होता असर,वैसा होता नाम.
 सही रहगुजर यदि मिले,पूरे होते काम.
  पूरे होते काम ,कभी अभिमान न करना.
  जीवन कर्म प्रधान,कर्म से कैसा डरना.
 मिले यदि सही साथ,मार्जन होता मति का.
  जीवन बने महान,असर ऐसा संगति का.
3
 समय -शिला पर बैठकर, शहर बनाते चित्र.
सूख गयी जल की नहर, जंगल सिकुड़े ,मित्र.
जंगल सिकुड़े,मित्र,सिमटकर गाँव खड़े हैं .
मिले गलत परिणाम,मानवी-कदम पड़े हैं
बढती जाती भूख,और बढ़ता जाता डर.
लिखें शहर इतिहास,बैठकर समय-शिला पर.
  नेकी अपनी छोड़ कर , बदल गया इंसान 
  मक्कारी का राज है , डोल गया ईमान 
  डोल  गया ईमान  , देखकर रूपया पैसा 
  रहा आत्मा बेच , आदमी यह कैसा 
  दो पैसे के  हेतु  , अस्मिता उसने फेकी 
   चोराहे पर नग्न  , आदमी भूला नेकी
          ----------शशि पुरवार
 
 

Wednesday, August 29, 2012

परिवर्तन --


परिवर्तन --

वक़्त के साथ
अंकित मानस पटल पे
जमा अवशेषों का
एक नया परिवर्तन .

झिरी  से आती
ठंडी हवा का झोखा
प्रीतकर लागे
पर अनंत बेड़ियों में जकड़ी 
आजाद  होने को बेकरार
घुटती साँसे
फडफडाते घायल पंछी सी
मांगे सुनहरी किरणों का
एक  नया रौशनदान
बड़ा परिवर्तन .

आजादी ने बदला
बाहरी आवरण ,पर
सोने के पिंजरें में
कैद है रूढ़िवादियाँ ,
जैसे एक कुंए का मेंढक ,
न जाने समुन्दर की गहराई
उथले पानी का जीवन
बस सिर्फ सडन
चाहे खुला आसमाँ
इक  परिवर्तन .

खंडहर होते  महल
लगे कई पैबंद
विशाल दरवाजो में सीलन
जंग लगे ताले के भीतर
खोखला  तन
पोपली बातें
थोथले विचार
जर्जर मन का
फलता फूलता
विशाल राज पाट
वक़्त की है पुकार
हो नवीनीकरण
बड़ा गहरा परिवर्तन .

आजाद गगन में
उड़ते पंछी
भागते पल
एक नया जहाँ
नई पीढ़ी थामें हाथ
पुरानी पीढ़ी का कदमताल
कर रहा पीढ़ियों का अंतर कम
सभ्यता , संस्कृति
आधुनिकता का अनूठा संगम
संग  ऊंची उडान
खिलखिलाते ,सुनहरे
पलों का अभिवादन
दिनरात का
सकारात्मक परिवर्तन ......!

वक़्त की पुकार ....!
           --------शशि पुरवार

Monday, August 27, 2012

दर्द जब बढ़ जाये ........!


दर्द  जब बढ़ जाये
एक नशा बन कर
तन को पीता जाये
इस बेदर्द दुनिया से
दर्द कभी न बांटा जाये.

सुख के सभी होते है साथी
दुःख में कभी काम न आये
हमेशा नेकी ही डूबे दरियां में
हाँथो में सिर्फ पत्थर नजर आये .

कांच के शीशमहल में


सुन्दर ऊँची दीवारों में
दिखती है सिर्फ चमक
लाश तो किसी को भी
 नजर ही न आये  .

यह वक़्त भी बड़ा बेदर्द  
अच्छाई को सदा छुपा जाये
कर्म किसी को भी न दिखे 
जनाजा निकल जाने के बाद ही
हवा  के रूख में थोड़ी नमी आये .


घूमते है महल में लाश बनकर
शरीर दफनाने पे अब तो
हँसी भी न आये .



बेदर्द दुनिया में ,
नजर आते है सिर्फ  बंकर 
प्यारा सा सीधा साधा दिल
कभी भी किसी को
नजर न आये .
-------- शशि पुरवार

Wednesday, August 22, 2012

मन का पंछी.!

 
तांका 
1 मन का पंछी
पंहुचा फलक में
स्वप्न अपने
करने को साकार
कर्म की बेदी पर .

2 बन के पंछी
उड़ जाऊ नभ में
शांति संदेश 
पहुचाऊ जग में
बन के शांति दूत .

3 उड़ते पल
हाथ की लकीर पे
नया आयाम
रचो कर्म भूमि पे
तप के बनो सोना .

4 मूक पंछी में
जानू प्रेम की भाषा
नीड़ बनाता
रंगबिरंगे स्वप्न
तैरते नयनो में .

-------शशि पुरवार

Friday, August 17, 2012

माँ की पुकार ...!


न हिन्दू , न मुसलमान
न सिख , न ईसाई .
मेरे आँचल के लाल
तुम सब हो भाई भाई
गौर से देखो मुझे
मै तुम सबकी माई .

क्यूँ लड़ते हो आपस में
बैर की भावना
मन में क्यूँ समाई
कर दोगे हज़ार टुकड़े , मेरे
क्या यही कसम है तुमने खाई.

सत्ता के नशे में चूर
चश्मा कुर्सी का चढ़ा है ऐसा ,
कि नज़रे घुमाते ही ,
चारो तरफ बस ,
कुर्सी ही कुर्सी नज़र आई..
आँखों से टपकती हैवानियत में
लुटती हुई माँ कहीं नजर ही न आई .

भारत की सरजमीं को सीचा था,
जिस प्यार व एकता ने ,
आज फिर वही
टूटती - बिखरती नज़र आई
कटते जा रहे है अंग मेरे ,
ममता आज मेरी ,
बहुत बेबस नज़र आई ....!

आतंकवाद , भ्रष्टाचार और हैवानियत से
छलनी कर सीना मेरा ,
ये कैसी विजय है पाई .
माता के तो कण - कण में बसी है,
शहीदो के प्यार व त्याग की गहराई .

मत कटने दो अब अंग मेरा
बहुत मुश्किलों से ,
बेडियो से ,
मुक्ती है पाई
तुम सब तो हो भाई-भाई
गौर से देखो मुझे
मै हूँ तुम सब की माई .

सुनो हे वत्स
अपनी इस धरती
माँ की पुकार
इसी माटी पे जन्मे
वीर लाल , छोड गए है
बंधुत्व की अमित छाप
पर तुम्हारी करतूतों से
माँ हो रही जार -जार .
एक वक़्त था जब
धरा उगलती थी सोना
आज कोख हो रही उजाड़
आँचल भी हुआ है तार तार
यह कैसी ऋतु आई

खाओ कसम न करोगे
अपने भाई का सर कलम
न खेलो खूनी होली
ना काटो मेरे अंग
दो मिसाल एकता
और भाई चारे की
तो सुरक्षित हो जाये वतन
जन्मभूमि तुम्हारी आज
मांग रही तुमसे यह वचन
मेरे आँचल के लाल
तुम सब तो हो भाई भाई
गौर से देखो मुझे मै
तुम सब भी प्यारी माई.

--------- शशि पुरवार

Wednesday, August 15, 2012

जय भारत .....तुझे सलाम .


  शूर की रसा 
   तरुण कंधो पे है
    राष्ट्र की धारा.

 २  भाषा अनेक 
     बंधुभाव है एक 
    राष्ट्र की शान .

३    वतन में जाँ
   तिरंगे को सलाम
     राष्ट्रीयगान .

 4   जीवनशक्ति
    मातृभूमि हमारी
     भारत माता .

५    गौरवशाली
   हिंद की जगद्योनि
     जन्मे बाँकुड़ा .

6  मेरा  भारत
   स्वर्ग सा मनोरम  
     पावन गंगा .

7 दिल औ जान
  तुझपे न्यौझावर
    मेरे वतन .

8 धर्म संस्कृति
  अमन  की चाहत 
  साँसों में बसी  .

9  जान से ज्यादा 
   तिरंगा हमें  प्यारा
     तुझे सलाम  .

 10  भारत है
  हमको जां से प्यारा
    जय भारत .
  



        -----  शशि पुरवार

सभी  दोस्तों को 15 अगस्त की हार्दिक शुभकामनाय .............वन्दे मातरम .

Sunday, August 12, 2012

दोहे ........

1  सबसे कहे पुकार कर , यह वसुधा दिन रात
   जितनी कम वन सम्पदा , उतनी कम बरसात .

2   इन फूलो के देखिये , भिन्न भिन्न है नाम
   रूप रंग से भी परे , खुशबु भी पहचान .

 3 समय- शिला पर बैठकर , शहर बनाते चित्र
    सूख गई जल की नदी , सिकुड़े जंगल मित्र .

   
------------------- हाइकु -------------

क्लांत नदिया
वाट जोहे सावन
जलाए भानु .
...

आया सावन
खिलखिलाई धरा
नाचे झरने .

नाचे मयूर
झूम उठा सावन
चंचल बूंदे.

काली घटाए
सूरज को छुपाये
आँख मिचोली .

बैरी बदरा
घुमड़ घुमड़ के
आया सावन .
----- शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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