Monday, October 19, 2015

फेसबुकी फ़ेसलीला


फेसबूकी फेसलीला  

पुनः चलते है फेसबुक की हसीन वादियों में, मैंने आपसे वादा किया था, आपको फेसबुक की गलियों में जरुर घुमाएंगे. हर रंग की तरह यहाँ भी अनेक रंग बिखरे हुए हैं, अजी तीज त्यौहार तो निकल गए यहाँ के त्यौहार समाप्त ही नहीं होते है,  जैसे जैसे  दशहरा पास आ रहा है यहाँ की गलियां राम नाम से सरोवर है. भारी- भरकम शब्दों के साथ राम का गुणगान, शबरी के बेर, रावण का दहन हमें त्रेतायुग के दर्शन करा देता है, सारी रामलीला इस आभाषी दुनिया में सिमट जाती है, किन्तु यहाँ की रामलीला जैसी रामलीला कहीं नहीं होती है.
       कौन कहता है त्रेता युग मिट गया, किन्तु वह तो भारी भरकम शब्दों का श्रृंगार करके यहाँ  जीवित है.  लोग अपना ज्ञान भरी भरी शब्दों को ढूंढकर, सजाकर वजन में प्रस्तुत कर रहें हैं. किन्तु फिर भी यह कलयुग है जहाँ सब कुछ संभव है, एक तरफ राम नाम दूसरी तरफ राम के भेष में रावण.  चित्रपट के बदलते रंगों की तरह यहाँ हर पल रंग बदलती मृगतृष्णा है.
        रामलीला का अर्थ भी यहाँ बदल कर कलयुगी फेसलीला हो गया है. हाल ही समाचार पत्रों में पढ़ा कि कई महिलाये इस आभाषी दुनिया के रावण के झांसे में आकर घर छोड़कर चली गयीं. और जल्दी ही सुबुद्धि खाकर,  सुबह का भूला शाम को भटक कर घर  वापिस आ गया.  यह नयी रामलीला के तोते समझ से परे हैं. कलयुग में राम कहाँ रावण से भरी रामलीला है. यहाँ न सीता का अपहरण किया जाता है अपितु कई सीता खुद बा खुद काल का ग्रास बनने को तैयार है. अब कौन समझाए यह त्रेता युग नहीं कलयुग है भाई, यहाँ तो रोज रावण जन्म लेते हैं रोज ब्लोक किये होते है, चुनावी हार हो या राजनीती हार, इसके बाद का  वनवास निश्चित होता है. किन्तु फिर नयी सुबह  नयी नयी राजनीती को गरमाने के लिए तैयार रहती है. यहाँ कौन राजा है कौन रैंक ज्ञात ही नहीं होता है, सिर्फ नयी चमक, नयी कहानी रोज गरमाती है, कहीं सुबकियाँ कहीं आजादी अपने रंग दिखाती है. संवाद के तीर हो या त्योहारों की आवाजाही, चार कमरे की दीवारों से खुली छोटी सी खिड़की के बाहर दुनियाँ की रंगीनियाँ छिपी हुई है. इस कलयुग में इस रंग के बिना जीवन बेरंग हैं.छद्म भेष में यहाँ रोज रावण मिलेंगे, हमारे एक महान कहे जाने वाले सीधे साधे इंसान ऐसे राम बनते हैं, कि बिना उनकी सीता के वह कुछ नहीं वहीँ दूसरी तरफ छिछोरी हरकतें, इसे क्या कहेंगे. बेहतर है यहाँ शब्द वाणों से किसी और को आहत करने की जगह खुद के भीतर का रावण दहन किया जाये.. जय श्री राम .
 ---- शशि पुरवार

Friday, October 9, 2015

फेसबुक बनाम जिंदगी



ओह सुबह हो गयी...  जल्दी से गुड मोर्निंग कह दूं, .... ओह हो अभी अभी  मंजन किया है  ... जरा कोलगेट स्माइल दिखा दूँ .... आज तो बाहर डिनर है ... आज मैंने क्या खाया पहले जल्दी से जरा शेयर तो कर दूं .. दो चार पंक्ति भी लिख दूं ... वाह वाह लाइक पर लाइक और इतने सारे कमेंट्स ..... आनंद आ गया ... मै तो छा गया ... अपना छाया चित्र भी बदल लेता हूँ ......फेसबुक ने तो जिंदगी के मायने बदल दिए हैं, कौन कहता है कि  मै परवाह नहीं करता ..... माँ के साथ चित्र .. दादी के जन्मदिन की तस्वीर ...... भेले ही दादी – माँ  को ज्ञात ही ना हो कि आज उनका जन्मदिन इतनी धूम  धाम से मनाया गया है ... तस्वीरे क्या बयाँ कर रही है और हकीकत क्या है.....  यह तो अल्लाह ही जाने .... पर एक बात तो साफ़ हो गयी है  दादी आज फेमस हो गयी .है ....... बेटा वाह वाही लूट  रहा है ... दादी इसी बात से खुश है चलो उसके साथ किसी ने एक तस्वीर तो खीचीं है  ....! भले घर में किसी को गुड मोर्निंग या गुड नाईट नहीं कहेंगे किन्तु फेसबुक को  कहना नहीं भूलते ... अब तो दिन  रात बस माला जपते रहो और कहो ---फेसबुक बाबा की जय .

                  कौन कहता है दुनिया सिमट  गयी है  लोग बदल  गए हैं ,भाई अब तो जिंदगी एक खुली किताब हो गयी है.
परियों की कथाओं की तरह एक नयी दुनियाँ ने जन्म लिया और सबको अपने मोहपाश मे ऐसा  बाँधा की कोई भी इससे बच नहीं पाया  जिंदगी के मायने बदल गए हैं जीवन बंद कमरों से निकलकर बाहरी दुनिया से जुड़ गया है. हाँ जी हम बात कर रहे है सोशल मिडिया फेसबुक की. जो आजकल घुसपैठ की तरह हमारे जीवन में घुस गया है .
हाँ जी यह वही  फेसबुक है .... जिसने आम आदमी को भी आज खास बना दिया है, या यों कहे  कि सुपरस्टार बना दिया है . शुरू शुरू में चर्चा थी फेसबुक आया है, अमीरों के चोचले ......कब आम जीवन की जरुरत बन गए किसी को भनक नहीं नहीं पड़ी . अकेले घर में बैठे बैठे लोग जहाँ अपने अड़ोसी पडोसी से कट गए वहीँ फेसबुक के जरिये पूरी दुनियाँ से जुड़ गए हैं, कितना सच है कितना झूठ कोई नहीं जानता किन्तु झूठ का बड़ा सा मायाजाल ऐसा  फैला हुआ है जिसकी  चमक में सब धुंधला पड़ गया है. एक ऐसा नशा जो सर चढ़ कर बोलता है .

                        ऐसी बात नहीं है कि यहाँ सिर्फ धोखा ही है ..... फेसबुक भी अनेक रंगों से सजा मायाजाल है अच्छाई है तो  बुराई भी ... फेसबुक हर भाषा में मौजूद है ..लोगों की जरुरत के अनुसार इसे किसी भी भाषा में लिख सकतें है . और लोग इसकी उँगलियों पर नाच रहे हैं .लोग हिंदी भी सीख रहें है , हिंदी लिख रहें हैं ... एक बात की बहुत हैरानी होती है .... हिंदी में खुद को महान दिखाना भी नहीं भूलते हैं  , भेड़ चाल  की तरह भारी भारी  शब्दों का प्रयोग  ..क्लिष्ट भाषा ... भले ही पूर्णतः समझ में नहीं आये ... पन्ने पर पन्ने भरते चले जायेंगे,  उफ़ पढ़ कर कई बार ऐसा लगने लगता है कि जो भाषा आम आदमी की है  ... वह तो उसकी समझ से भी बाहर हो गयी. खैर .... कलयुग सच में कलयुग ही है. किन्तु डिक्सनरी से भारी शब्दों को ढूंढकर लिखना कोई मजाक नहीं है बड़ी मेहनत लगती है . हर त्यौहार पर फेसबुक के पन्ने भारी भरकम शब्दों से सजे अपनी ठसक दिखाते रहतें है .
              आज बंद कमरों में बैठे जोड़े आपस में तो बात नहीं करते  है, किन्तु फेसबुक पर विचारों का आदान प्रदान  जरुर शुरू रहता है .... जहाँ कई बुराईया व धोखा धडी बढ़ी है वहीँ कुछ  अच्छा पक्ष भी है।  अच्छे लोगों से मिलना जुड़ना   विचारों का आदान प्रदान  हर क्षेत्र की उपलब्धि की कहानी कहता है .

                     लिखने पढने और अन्य क्षेत्र में रूचि रखने वालों के लिए यह खुला मंच है जहाँ उसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है .... और कुछ अच्छे लोगो का सानिध्य  भी प्राप्त होता है . जब अच्छाई है तो बुराई भी दो  कदम आगे चल रही है .कई धूर्त लोग तो यहाँ गुरु बनकर ज्ञान बाँटते नजर आते है .भले उतना ज्ञान ही ना हो , यहाँ हर कोई महान है   चमकता सितारा है .सब कुछ आभासी है. आभासी दुनिया का  ऐसा दलदल में जहाँ कोई सितारा अंधेरों में खो जाता है तो कोई नयी रौशनी ग्रहण करके आसमान में चमकता रहता है ...जो भी है जैसा भी है यह फेसबुक हमारा है जिसके बिना लोगों की साँसे थमने लगती  हैं . धीरे धीरे ग्रसित कर रहा यह रोग अंततः किस स्थिति में ले जायेगा कहना असंभव है ...विद्यार्थी और छोटे बच्चों को भी इस रोग  ने अपनी चपेट में ले लिया है एक तरह से बच्चों का भविष्य दौंव पर लगा हुआ है पढाई से विमुख होते यह बच्चे सोसल मिडिया की चपेट में बुरी तरह फँस रहे हैं उन्हें भविष्य की चिंता ही नहीं है मिडिया का आकर्षण उन्हें चोरी चुपके कई गलत  मार्ग दिखा रहा है .....इससे आज महिलाएं भी दूर नहीं है ..अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए यह मिडिया जितना कारगर है उतना ही गलत कृत्य को अंजाम .देने का जिम्मेदार भी है ....... इस आभासी दुनिया के मायाजाल में फिलहाल पूरी दुनियाँ रम  गयी है . हर कोई भोले शंकर को भूलकर  दिन रात भजन  गा रहा है –
वाह वाह  अब आप जरा फेसबुक पर हर त्यौहार कमाल भी  तो देखिये,
लो जी भइया  अब तो होली भी आ गयी, जे बात...  अब तो हर तरफ आनंद ही  आनंद है, नजरें  तस्वीरों में गड़ी रहेंगी, और  अपनी आँखे  सेकेंगी, बिना पानी और बिना रंग के शब्दों की होली कहीं देखि है भइया , नहीं देखि हो तो फेसबुक पर आ जाओ, शब्दों की मार, रंगबिरंगी  तस्वीरों की बौझार, आभाषी दुनियां का जमकर प्यार , आय  हाय, ऐसी होली के क्या कहने, घर बैठे पूरी दुनियां के संग होली खेल रहें है, और दुनियां आपको होली खेलते हुए देख भी रही हैं, जिन्होंने बाहर होली नहीं खेली वह तो घर बैठकर जो होली खेल रहें है उसका  होली का असीम सुख चारदीवारी के अंदर ले रहें है. घर वालों को तो नहीं  किन्तु दुनियां को तो होली का आनंद लोगों ने दिखा. ही दिया है  फेसबुक बाबा की जय .
                 

फेसबुक सिर्फ सामान्य लोगों के लिए ही नहीं अपितु कलाकार , राजनीतिज्ञ , मिडिया सभी  को एक सूत्र में  पिरोने का कार्य कर रहा है. सभी यहाँ  अपना  अपना साम्राज्य स्थापित करने में  लगे हुए हैं।  दोस्ती के नाम पर स्वार्थ की अंधी दौड़ जारी है।  कहतें  है स्वतंत्र देश में सभी को वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है, किन्तु यह भी  देखा गया है कि अपने विचार को अबगत करना कुछ लोगों को बहुत भारी पड़ा है जिसका फायदा राजनीतीक दल ने भली भांति उठाया है.उदारहण के लिए कुछ नेताओ ने अपनी अपनी पार्टी का यहाँ प्रचार शुरू किया और कुछ को लपेटे में लिया , भाई केजरीवाल को ही ले लीजिये , यहाँ तो अण्णा हजारे का भी पन्ना बना था जिसे पब्लिक ने सर माथे पर बैठायाखूब राजनीती खेली गयी दोस्ती और दुशमनी यहाँ भी अपने पांव पसार चुकी हैं, भाई फेसबुक नया है  इंसान की फितरत तो वहीँ हैं ना,   जिसे   ब्रम्हा भी आ जाएँ तो नहीं बदल सकतें हैं
--शशि पुरवार 

Tuesday, October 6, 2015

रंग जमाया - छोटी बहर

मन को जिसने
फिर भरमाया

जादू ऐसा
दिल पिघलाया

लगता हमको
प्यारा साया

सखी सहेली
पास बुलाया

महफ़िल में अब
रंग जमाया

हर कोई फिर
दौड़ा आया
-शशि पुरवार
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Monday, September 28, 2015

डिजिटल इंडिया



हमारे सपनों का शहर, हमारे सपनों का देश,  आज जैसे सारे स्वप्न साकार होने की ड्योढ़ी पर खड़े हैं. यह सोच कर ही सुखद प्रतीत होता है कि भारत को डिजिटल रूप देने के कयास और फिर प्रयास शुरू हो गयें हैं. प्रधानमंत्री योजना के अनुसार पेपर लेस कार्य करना कितना अच्छा होगा, देश में कागजों की रद्दी कम हो जाएगी। यहाँ वहां फ़ाइल के ढेर फिर नजर नहीं आयेंगे, हमारे इर्द गिर्द की दुनियाँ,  जादुई  दुनियाँ  बन जाएगी. सरकारी टेबलों पर एक कागज नहीं होगा, फाइलों के पीछे काम के बोझ का मारा बाबू भी नजर नहीं आयेगा. अप टू डेट सरकारी अफसर डिजिटल कार्य में आँखे गडाए नजर आयेंगे. इधर फॉर्म भरो उधर  दो  मिनिट में फॉर्म जमा हो जायेगा, दुनिया किसी फेंटेसी से कम नहीं होगी.   दो मिनिट वाली मैगी  तो आउट हो गयी है किन्तु  दो मिनिट वाला यह कार्य सिर चढ़ कर बोलेगा.

   योजना अति सुन्दर है, किन्तु करोड़ो की आबादी वाले देश में यह सपना सार्थक कैसे होगा, भारत का गॉँव  हो या शहर बिजली की असीम कृपा बनी रहती है.  तीन चार  घंटे की लोड शेडिंग कम नहीं होती है, कभी तेज बरसात हुई या तेज हवाएँ चली, सबसे पहले बिजली के  तार ही  टूटते हैं.  सिर्फ मेट्रो शहर को छोड़ दीजिये बाकी देश का कमोवेश यही हाल चाल है. हाय हाय के नारे लगाने के बाद भी बिजली की समस्या कायम हैं, उस पर डिजिटल कार्य, अब ईश्वर ही जाने, कैसे संभव होगा, बढती आबादी, कम सुविधायें, हमारे देश में रेंग रेंग कर आगे बढ़ने की प्रवृति आज भी कायम है. अजी बिजली छोडिये, गॉँव  में शोचालय भी नहीं है, करीब  पिचयान्वे  करोड़ की आबादी वाले देश में मोबाइल उपभोक्ता करीब इक्कीस  करोड़ के आस पास हैं, आज जनता मोबाइल नेट वर्क के नाम से परेशान है, गॉँव  में चले जाओ तो नेटवर्क मिलना दूभर हो जाता है पर  बेचारे मोबाइल धारक की भाग दौड़ उसे वजन घटाने में जरुर सहायक होती है, भले नेटवर्क नहीं मिला किन्तु  कुछ वजन तो कम हुआ. पहले लोग घर की चार दीवारी में बैठकर दूरभाष से वार्ता किया करते थे और आज छोटा सा मोबाइल हाथों में लेकर, घर क्या सड़कों पर भी जोर जोर से बोलते नजर आ जातें है, कभी कभी समझ ही नहीं आता कि सामने वाला कानों में स्पीकर लगाकर बात कर रहा है या पागल है, जो अकेले अकेले  बड़बड़ाते  हुए चल रहा है. सामने वाले तक भले ही बात न पहुँची हो किन्तु अडोस पड़ोस की चलती फिरती काया व दीवारें  जरुर सब सुन लेती हैं. फेसबुक और ट्विटर पर न बैठ पाने के दुःख में कई लोगों की सांसे जैसे रुक जाती है, लोग पूनम के चाँद की तरह नेटवर्क के जुड़ने के लिए साँसे रोककर  उसके तार जुड़ने की राह देखतें है, जैसे बिना नेटवर्क के उनका  खाना- पीना बहाल हो गया था, ऐसे में डिजिटल तकनीक कैसे कार्य करेगी हमारे छोटे से दिमाग में जैसे दही जमना प्रारंभ हो गया है.

       पेपर लेस वर्क की बातें करने के साथ ही सरकारी मजमों को फरमान सुनाया गया कि अब से सारा कार्य कंप्यूटर पर होगा, अब सरकारी नौकरशाही का आदेश तो सरकारी दफ्तरों  में लागू होना लाजमी था, एक किस्सा याद आ रहा है, कचहरी में  भी क़ानूनी दस्तावेज कंप्यूटर की निधि बन चुके हैं, एक महत्वपूर्ण केस पर जज साहब फैसला सुना रहे थे, जजमेंट कंप्यूटर पर अपनी तेज गति के साथ टाइप किया जा रहा था कि अचानक बिजली विभाग की मेहरबानी हुई और बत्ती गुल, अजी गुल हुई तो हुई, सारा जजमेंट भी गायब हो गया, हमारे यहाँ तकनिकी सामान की कोई गारंटी नहीं होती है और ऊपर से सरकारी,सामान, तौबा तौबा... अब जज साहब को काटो तो खून नहीं, एक तरफ कार्य की भरमार, दूसरी तरफ तकनीकी  मार, अगर कमोवेश यही हाल रहा तो काहे का डिजिटल इंडिया, डिजिट ही गायब हो जायेंगे.  
   
               वक़्त की बर्बादी  से देश तरक्की करेगा या पिछ्डेगा यह तो वक़्त की बताएगा।  देश में स्पेक्ट्रम की भी कमी है, बेरोजगारी भी है, जो लोग अंतरजाल और डिजिटल तकनीक से दूर हैं उन्हें कैसे जोड़ेंगे,  भारत आधी से ज्यादा आबादी पीली रेखा के नीचे आती है, जहाँ दो जून खाना सुलभ नहीं है वहां यह तकनीक कैसे कार्य करेगी, डिजिटल तकनीक के माध्यम से चोरी, कालाबाजारी बढ़ने की सम्भावना है, गरीब तबका बैंक में अपना पैसा जमा कराता है, जब सभी कार्य डिजिटल होंगे तो बैंक में भी शुरू ओ जायेगा. हाल ही में एक वायका हुआ, एटीएम से पैसा निकालना सभी को नहीं आता है, गॉंव के एक व्यक्ति ने एटीएम से पैसा निकालने में वहीँ के गार्ड्स से मदद ली, हर बार उसी की सहायता से पैसा निकालता था, बाद में उसी गार्ड ने उसका एटीएम खाली कर दिया, जिन लोगों के पास नेट या डिजिटल सुविधाएँ नहीं है उन्हें दूसरों को पैसा देकर यह कार्य करवाना पड़ता है. हमारे यहाँ कम उपभोक्ता नेट का इस्तेमाल करतें है जो उपभोक्त्ता  नेट उपयोग करतें है वह स्पीड की समस्या से ग्रस्त हैं. परेशानियां काल के मुँह की तरह मुह बाये खड़ी है, निदान क्या होगा  यह नीति तय करेगी।  पूरे भारत को पहले साक्षर होना  आवश्यक है , तीसरी दुनियां की तरह धनवान भी होना जरुरी है, घर के पैसे को घर में रखना और तरक्की करना किसी बनिया से सीखा जाये तो सफलता के पैमाने बढ़  जायेंगे। खैर हम अड़ंगा नहीं लगा रहे है , डिजिटल इंडिया बन गया तो आधी समस्या कम हो जाये यही कामना हृदय में है 
   जय भारत। --  
 शशि पुरवार 

Monday, September 21, 2015

मन खो रहा संयम


आस्था के नाम पर,
बिकने  लगे हैं भ्रम
कथ्य को विस्तार दो ,
यह आसमां है कम .

लाल तागे में बंधी
विश्वास की कौड़ी
अक्ल पर जमने लगी, ज्यों
धूल भी थोड़ी
नून राई, मिर्ची निम्बू
द्वार पर कायम

द्वेष, संशय, भय हृदय में
जीत कर हारे
पत्थरों को पूजतें, बस
वह हमें तारे
तन भटकता, दर -बदर
मन खो रहा संयम.

मोक्ष दाता को मिली है
दान में शैया
पेंट ढीली कर रहे, कुछ
भाट के भैया
वस्त्र भगवा बाँटतें,
गृह, काल. घटनाक्रम .
- शशि  पुरवार

Saturday, September 19, 2015

तिलिस्मी दुनियाँ



काटकर इन जंगलो को
तिलिस्मी दुनियाँ बसी है 
वो फ़ना जीवन हुआ, फिर
पंछियों की बेकसी है.

चिलचिलाती धूप में, ये
पाँव जलते है हमारे
और आँखें देखती है
खेत के उजड़े नज़ारे
ठूँठ की इन बस्तियों में
पंख जलना बेबसी है

वृक्ष  गमलों में लगे जो
आज बौने हो गए है
आम पीपल और बरगद 
गॉंव भी कुछ खो गए है
ईंट गारे के  महल  में
खोखली रहती हँसी है

तीर सूखे  है नदी के
रेत का फिर आशियाँ है
जीव - जंतु लुप्त हुए जो
अब नहीं नामो- निशाँ है
चाँद पर जाने लगे हम
गर्द में धरती फँसी है
-- शशि पुरवार



Monday, September 14, 2015

विश्व फलक पर चमक रही है हिंदी



1४ सितम्बर हिंदी दिवस है लेकिन हिंदी दिवस एक दिन या एक महीने के लिए नहीं अपितु हिंदी दिवस रोज मनाएँ। हिंदी सिर्फ भाषा नहीं मातृभाषा है, हिंदी का विकास हमारा विकास है। शान से कहें हिंदी है हम। हिंदी दिवस पर विशेष शुभकामनाएँ।


विश्व फलक पर चमक रही है
हिंदी  मधुरम भाषा
कोटि कोटि जन के नैनों की
सुफल हुई अभिलाषा.

बागिया में वह खिलती

सखी- सहेली के संग -संग
गले सभी के मिलती
पुष्पित होती, हँसते गाते
मन की कोमल आशा ।

यह सूफी  मुस्काई

तुलसी के अँगना में उतरी
बन दोहा -चौपाई
झूल प्रकृति के पलने में
प्रतिदिन, गढ़ती परिभाषा।

गागर में सागर भरती

हिंदी  का रस पान करें
निज भाषा अपनी है, हम
हिंदी का सम्मान करें
एक सूत्र में सबको बाँधे
हिंदी  देशज भाषा।


                                       - शशि पुरवार 
 

Wednesday, September 9, 2015

हर पल रोना धोना क्या



हँस कर जीना सीख लिया 
हर पल रोना धोना क्या

धीरे धीरे कदम बढ़ा
डर कर पीछे होना क्या

जीवन की इस बगियाँ में
काँटों को भी ढोना क्या

दुःख सुख तो है एक नदी
क्या पाना फिर खोना क्या

मिल जाये खुशियाँ सारी
थककर केवल  सोना क्या.

सखी सहेली  जब मिल बैठें
मस्ती का यह कोना क्या

दुनियादारी भूल गए
मीठे का फिर दोना क्या 
 --  शशि पुरवार 

Sunday, September 6, 2015

हे प्रिय हस्ताक्षर





नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर,
बिखरें, जग के हर कोने में
उसके स्वर्णाक्षर

सरस-सुगम, उन्नत ये भाषा
संस्कृति की बानी है
अंग्रेजी की सर्द धरा पर
ये, अनुसंधानी है

ज्ञान ज्योति की अलख जगाते
हिंदी अंत्याक्षर
नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

गरिमामयी, हिन्द की रोली
रंगो को अपनाएँ
मनमोहक शब्दों के मोती
मिल प्रतिबिम्ब बनाएँ

गीत-गजल औ छंद-विधाएँ
हिंदी अमृताक्षर
नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

हिंदी का सत्कार करें, हो
जन जन की अभिलाषा
गाँव-शहर हर आँगन के
सँग, बने राष्ट्र की भाषा

सीना तान, गर्व से बोलें
हम हिंदी साक्षर

नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

-- शशि पुरवार

Tuesday, August 18, 2015

मन प्रांगण बेला महका। .

मन, प्रांगण बेला महका
याद तुम्हारी आई 
इस दिल के कोने में बैठी 
प्रीति, हँसी-मुस्काई।

नोक झोंक में बीती रतियाँ 
गुनती रहीं तराना 
दो हंसो का जोड़ा बैठा 
मौसम लगे सुहाना

रात चाँदनी, उतरी जल में 
कुछ सिमटी, सकुचाई।

शीतल मंद, पवन हौले से 
बेला को सहलाए 
पाँख पाँख, कस्तूरी महकी  
साँसों में घुल जाए। 

कली कली सपनों की बेकल 
भरने लगी लुनाई 

निस  दिन झरते, पुष्प धरा पर 
चुन कर उसे उठाऊँ 
रिश्तों के यह अनगढ़ मोती 
श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ

रचे अल्पना, आँख शबनमी 
दुलहिन सी शरमाई।    
     --- शशि पुरवार 

Tuesday, August 4, 2015

फेसबुकी बौछार




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           आजकल व्यंग विधा अच्छी खासी प्रचलित हो गयी है. व्यंगकारों ने अपने व्यंग का ऐसा रायता फैलाया है, कि बड़े बड़े व्यंगकार हक्के बक्के रह गए, अचानक इतने सारे व्यंगकारों का जन्म कैसे हुआ, आपके इस रहस्य की गुत्थी हम सुलझाते है, इसका जन्मदाता फेसबुक है. जिसने अनगिनत व्यंगकारों को अपनी गोदी में खिलाया, लिखना पढना सिखाया और उन्हें आसमान पर बीठा दिया.अजी भेड़ चाल सब जगह कायम है तो फेसबुक पीछे कैसे रह सकता है.


           यहाँ भी हमारे देखते देखते नए व्यंगकारों की अच्छी खासी जमात खड़ी हो गयी है. जिसे देखों मुर्गे की एक टांग लिए हर किसी की चिकोटी काट रहा है, कोई कविता को लेकर फिरके कस रहा है कोई किसी के फैशन की धज्जियाँ उड़ा  है. कोई महिलाओं की तस्वीरें देखकर गिरा पड़ा हुआ है तो कोई पुरुष अपनी हर अदा दिखाने के लिए रोज तस्वीरें ऐसे बदलता हैं जैसे विश्व सुंदरी अपने अलग अलग पोज दुनियाँ को दिखाना चाहती है,  हमारे यहाँ के चम्मच मोटे थुलथुले शरीर में भी सौन्दर्य की सुंदरी वाली परिकाष्ठा अपनी बैचेन नजरों से देखतें हैं. ऐसे फीता काटने वालों की कोई कमी नहीं है.
          हाल ही मै भारत वर्ल्ड कप में हार गया तो सारा ठीकरा अनुष्का शर्मा के सर पर फोड़ा गया, आखिर यह गुत्थी सुलझी ही नहीं कि बालकनी में बैठी हुई अनुष्का मैच कैसे हरा सकती है या फिर हमारे क्रिकेटरों का ध्यान मैच से ज्यादा विराट कोहली और अनुष्का शर्मा पर लगा हुआ था. वैसे भी जनता  यदि इंसान को भगवान बनाएगी तो यही हाल होगा. एक किस्सा और जहन में ध्यान आ रहा है, कुछ पुरुष ऐसे भी है जिनकी उम्र अपने अंतिम पड़ाव पर  है और वह नजरें सेकने से लेकर  महिलाओं पर कुदृष्टि डालने से बाज नहीं आतें हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगी, बुजुर्ग हस्तियाँ इस तरह के कार्य करके युवा पीडी को क्या सन्देश दे रहीं है, जहाँ भरोसा कायम होना चाहिए वहां ऐसी बचकानी हरकतें , आखिर पूजने वाला उन्हें क्या दर्जा प्रदान करेगा. ऐसी हरकतों पर धज्जिया उडाना कोई हमारे कुएँ के मेढकों से सीखे.
           यही हाल कमोवेश लगभग फेसबुक पर भी मौजूद है. घर से दुनीया को जोड़ने वाली खिड़की पर सभी की नजर है, यहाँ भी रायता फ़ैलाने वालों की कमी नहीं है. कौन किससे चोंच लड़ा रहा है, कौन किसका अच्छा मित्र शुभचिंतक है, खोजी नजरें अपना कार्य करके आग लगाने का कार्य बखूबी पूर्ण शिद्दत से निभातीं है, आखिर व्यंग और कटाक्ष में हमारे जैसा सिस्टम मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं.
               एक दिन ऐसे ही अचानक हमारे जादुई बक्से की खिड़की खुली और सन्देश मिला क्या बात है आप बहुत बहुत सुन्दर हैं, हर तरफ छाई हुई हैं, जहाँ देखिये छप रहीं है. आखिर  इन जनाब का हाजमा किस बात से बिगड़ा, कुछ समझ नहीं आया, ऐसे लोगों को कोई क्या जबाब दे सकता है.  एक और हमारे भलेमानस शुभचिंतक है, जो कहते है सतर्क रहो आगे बढ़ाने वाले ही आपको पटकनी देंगे, कुछ प्यारे सखा सहेली आगे बढ़ने से इतना नाराज हो गए कि कमतर दिखाने का कार्य पूर्ण शिद्दत से करने लगे और व्यंग के सारे रंग हमें लगाने लगे, उन्हें यह समझ ही नहीं आया इससे उनकी ही कलई   खुली है हम तो वहीँ अपनी कछुए वाली निति चले जा रहें हैं. क्यूंकि हमें तो रेस में कोई रूचि ही नहीं है .
         आजकल मानसून के बदमिजाज मौसम की तरह व्यंग बारिश कहीं भी शुरू हो जाती है. व्यंग विधा में आये नए नए कई रचनाकारों ने बड़े बड़े रचनाकारों के कान काटना शुरू कर दियें हैं. हरिशंकर परसाई जी के व्यंग नए कदमों को अपनी सिद्धहस्त कला का ज्ञान प्रदान करतें हैं. किन्तु अचानक फेसबुकी स्टार बने हुए व्यंकारों ने अपनी स्वयं की विधा को ईजाद कर लिया है, स्वयं को नामचीन व्यंगकार कहने वाले फेसबूकी व्यंगकारों ने हर किसी को अपने लपेटे में लेना प्रारंभ कर दिया है. वे वहां सर्वप्रथम संपादक को ढूंढते हैं , उनसे मित्रता बढ़ाते हैं और बार बार निवेदन करके मित्रता की खातिर खुद को स्थापित करने का प्रयास करतें है, हाल ही में एक किस्सा हुआ, हमने अभी अभी व्यंग विधा की गलियों में अपने पैर रखे, गाहे बगाहे पाठकों ने स्वागत किया, तो जनाब सिखने के बहाने हमने अपनी कलम घिसना प्रारंभ कर दी. हमारे प्रिय संपादकों को लेखन पसंद आया तो उन्होंने हमारी कलम को एक कुर्सी प्रदान कर सम्मान से नवाज दिया, खैर हमने स्वयं को विधार्थी मान कर कुर्सी को गुरु बनाना उचित समझा, किन्तु यह क्या फेसबुक के कई नए व्यंगकारों की नजर हमारी कुर्सी पर पड़ी और उन्होंने चाट में चुपचाप मक्खन लगाना प्रारंभ कर दिया, हमारी रचना को भी छपवा दीजिये, आप हमारी मित्र है, आपका बहुत नाम है ...आपको हर कोई छापता है  वैगेरह वैगेरह ... मित्रता की खातिर हमने उन्हें संपादकों के संपर्क की जानकारी प्रदान कर की, किन्तु वह सामग्री भेजने के बाद भी प्रकाशित नहीं हुई . तो उन्ही नामचीन रचनाकारों के बीच हम अमित्र होने लगे क्यूंकि हमारा यह दोष है कि उनकी रचना प्रकाशित नहीं हुई. लो भाई नेकी भी की और कुएं में धकलने की तैयारी भी हमारी ही की गयी है . हम तो यही कहंगे कर्म करते रहिये फल की चिंता ना कीजिये . शुक्र है हमें कुर्सी का चस्का नहीं लगा और ना ही मक्खन की डालियाँ हमें भगवान बना सकीं . हम तो वह पैदल है जो सिर्फ चलना जानता है. बाकी के दौंव पेंच खेलने के लिए अन्य लोग है तो यह कार्य उन्ही के जिम्मे छोड़तें हैं. आसमान में चमक रहे फेसबूक के हर रंग का आनंद लेतें हैं . 
 -- शशि पुरवार 

Monday, August 3, 2015

-- दर्शन से प्रदर्शन तक






                      हिंदी काव्य की बहती  धारा में  जन जन ओत प्रोत है, हिंदी के बढ़ते चलन और योगदान के लिए सबका प्यारा फेसबुक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है. हिंदी की इतनी उपजाऊ धरती में कविताओं की लहलहाती फसल, हर उम्र के लोगों को आकर्षित कर रही है.किन्तु यह क्या देखते देखते यह लहलहाती फसल अचानक गाजर घास के जैसी फैलने लगी है. विद्वजन और साहित्यकार सभी चिंतित है, अचानक से इतने सारे रचनाकार कहाँ से आ गयें है. यह अच्छी बात है. फेसबुक एक शाला की तरह बन गया है. लिखना पढ़ना कोई बुरी आदत नहीं है, किन्तु यहाँ तो सभी ज्ञानी बड़े- बड़े कलमकारों को मात देने लेगे हैं. फेसबुकिया बुखार के चलते नौसिखिये वाह - वाही  सुन -सुन कर स्वयं  को ज्ञानी समझने लगें हैं, कोई भी रचनाकार क्यूँ न हो, रचना में नुक्स निकालना उनकी आदत में शुमार हो गया है, जो नौसिखिया हो, उसे सिखाओं भले ही आधा कचरा ज्ञान ही बाँटो, यदि कोई बड़ा साहित्यकार निकल जाये तो बत्तीसी  दिखा कर खिसक लो.  हाल ही में एक मजेदार  किस्सा  हुआ, हमारी रचना पर टिप्पणी के साथ साथ चाट बक्से में मीन मेख निकाली गयी --  शब्दों पर ज्ञान बाँटा गया, लय ताल की बारीकियाँ समझाई गयीं, खैर आदतन हमने विनम्र भाव से कहा --
 हमें तो ठीक प्रतीत हो रहा है. हम अपने साहित्यिक मित्रों से चर्चा करेंगे. साथ ही यह भी कह  दिया यह सभी प्रकाशित है, इस पर शोध किया गया है .फिर भी आपकी सलाह - शब्द पर विचार करेंगे .

जनाब गर्व में गुब्बारे की तरह फूल गए और सीना चौड़ा करके बोले -- मै बड़े बड़े रचनाकार और उस्तादों के साथ रहता हूँ आपको जरुर ज्ञान दूंगा .उनसे भी चर्चा करूँगा. 

         अगले दिन क्षमा के साथ  हमें  विजय घोषित कर दिया गया. जब हमने उन जनाब से पूछा आप क्या करतें है तो उत्तर मिला अभी २ रचना ही लिखी हैं. लिखना सीख रहें है. अब ऐसे ज्ञान पर हँसे या मूर्खता  पर शोध करें पर ज्ञान दे. ऐसा भी क्या डींगे हाँकना कि स्वयं पर सवालिया निशान खड़े हो जाएँ .

                   फेसबुक कोई अलग दुनियाँ नहीं है, जग के सारे जालसाज लोग भी इसमें शामिल है.  बड़े- बड़े रचनाकार ग़ालिब, गुलजार, नईम, जावेद अख्तर सभी यहाँ मौजूद है लेकिन दुःख की बात यह है कि इन सभी महान विभूतियों के साथ नए स्थापित रचनाकार की रचनाएँ किसी न किसी  लम्पट लोगों द्वारा उनके नाम से फेसबुक पर प्रकाशित मिल जाएँगी. फेसबुक क्या अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी हुनर के यह गुर नजर आतें हैं , यानि चोरी भी और सीना जोरी भी. दुनिया गोल है प्राणी कहीं न कहीं टकरा ही जातें हैं. इसी प्रकार यह रचनाएँ  जब उसके असली रचनाकार के सम्मुख  किसी दूसरे के नाम से सामने दिखती है तो उसके दुःख की कोई सीमा नहीं होती है. फेसबुकी बुखार ने लोगों के होश उड़ा रखें हैं. ग्लैमर का नया क्षेत्र जहाँ आसमान भी है तो नए परिदों का आशियाँ भी बन गया है. दर्शन और प्रदर्शन सभी का बोल बाला है,  ऊँची दूकान और फीके पकवान की तरह अब  दर्शन  खोटे वाला मामला अब व्यंगकारों ने दाखिल कर लिया है . आगे आगे देखतें है यह फेसबुकिया  बुखार क्या क्या रंग दिखलाता है. इसी कड़ी में आपसे अगले महीने मिलूंगी तब तक के लिए हम इस आसमान की रंगीनी बारिश का आनंद लेने जातें हैं.

                          -- शशि पुरवार
अट्ठहास में प्रकाशित व्यंग साभार।
  
 

Tuesday, July 21, 2015

व्यंग -मज़बूरी कैसी कैसी ----





मज़बूरी शब्द कहतें ही किसी फ़िल्मी सीन की तरह, हालात के शिकार  मजबूर नायक –नायिका का दृश्य नज़रों के सम्मुख मन के चित्रपटल पर उभरता है, जिसमे हीरो ,हिरोइन को मज़बूरी में  सहारा देता है या खलनायक उसकी मज़बूरी का फ़ायदा उठाता है . ...पर जनाब अब इस दृश्य में बेहद परिवर्तन आ गएँ हैं. वह कहावत तो आप सभी ने सुनी होगी कि मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी .. सच आजकल की पीढ़ी ने इस कहावत को चरितार्थ कर दिया है. मकबूल साधो अब हम क्या कहें, आज हम आपको मज़बूरी के भिन्न भिन्न प्रकारों से अवगत करातें है. 
                     अब यह ना सोचे कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा हैं, भई किसी और को क्या मूर्ख बनाएँ हम स्वयं इसी महान मज़बूरी का शिकार हो चले हैं, हाँ हाँ मज़बूरी का शिकार आपसे अपनी इस मज़बूरी को साझा करतें है, हमारी मज़बूरी यह है कि संपादक और पाठकों के स्नेहिल निवेदन से हम आइसक्रीम की तरह पिघले हुए है और आपको वह पिघली हुई क्रीमी आइसक्रीम शब्दों की चोकलेट से सजाकर पेश कर रहें हैं.. कलम घिसना भी किसी मज़बूरी से कम नहीं हैं. समाज को आइना दिखाना हमारी मज़बूरी है, यही मज़बूरी कब कहाँ किसी के काम आकर कुछ भला करे दे, इसका किसी को अंदाजा नहीं होता हैं.यह हमारी जिम्मेदारी है जिसे हमें हर हाल में निभाना होता है , फिर वक़्त के अनुसार खुद को अपडेट भी रखना भी हमारी मजबूरी है .इसीलिए समाज के अपडेट लिखना आप मज़बूरी कहें या कार्य यह मुद्दा आपकी बहस के लिए छोड़ देतें हैं.. किन्तु हमें हर हाल में लिखना ही होगा , भाव आयें तो प्रसंन्नता की बात है किन्तु भाव  नहीं आएं तो दिमाग को हिला हिला कर निचोड़ कर भाव की स्याही से कलम को घिसना पड़ता है. शिष्टता के कारण लिखना अब हमारी मजबूरी हो गयी और हमें पढना आपकी, यानि एक अच्छे पाठक की मजबूरी है, हमारी मेहनत के बाद आपने नहीं पढ़ा तो किताब आपके सामने पड़ी पड़ी आपके गले की हड्डी बन जाएगी. वह आई और आपने उसके पन्नो पर नजर तक नहीं घुमाई .इस दुःख को निगलने से पहले हमारी इस पीढ़ा को जरुर समझेंगे. हमें पूर्ण विश्वास है कि आप हमें जरुर पढेंगे, चाहे  हमने कितनी भी बकबाद क्यूँ ना की हो.
                                       वैसे इस मुकम्मल जहाँ में हर इंसान मजबूर है.चाहे घर हो या बाहर. काहे कि हर काम मज़बूरी में ही किये जातें है, कैसे, तो सुनिए जैसे पति पत्नी को आपस में रिश्ता निभाना मजबूरी है, रोज रोज की खिटखिट – पिट –पिट, चाहे कितने नगाडे बजाये किन्तु वे सदैव एक दूजे के बने रहेंगे . पत्नी भोजन जला दे तो भी मुस्कुरा कर खाओ, प्रेम से अच्छा भोजन से दे तो खूब खाओ, किन्तु  खाओ, उसी प्रकार पति लाख झगडा करे तो उसे मनाओ और खिला खिला कर मनाओ, अजी मनाओ क्या बदला निकालो, भई कहतें हैं ना, मारो तो प्रेम से मारो, आजकल यही तकनीक हमारी युवा पीढ़ी ने भी प्रारंभ कर की है , आज के युवा रसोई घर में कंधे से कन्धा मिला रहें हैं. आज पुरुष कहने लगे हैं हम महिला के शिकार है तो महिलाएं अक्सर पुरुषों की शिकार होती है, अब यह सत्य तो ईश्वर ही जाने, भई दूसरों के मामले में टांग अडाने से वह भी घबरातें है. इस गृह युद्ध में तो श्रीकृष्ण का चक्र भी काम नहीं आता है.गृह हो या बाहर आप कहीं भी कार्य करें, मज़बूरी हर जगह विधमान है, कहीं वह बॉस बनकर हुकूमत करती है, कहीं दयनीय  जिन्दगी बनी हुई है. इसीलिए ईश्वर ने हर इंसान को कार्य करने के लिए मजबूर किया है. कार्य करो, पढो –लिखो ,कमाओ और परिवार चलाओ, वक़्त आये तो देश भी चलाओ.
                          अजी आज  देश के हालात भी कुछ इसी  तरह हो गएँ हैं. देश तरक्की चाहता है, बदलाव हर हाल में आवश्यक है किन्तु नेता कुर्सी के मद में डूबे हुए आपस में क्लेश करते रहतें है और बेचारी जनता उनके हाथों मजबूर है. नेताजी की मज़बूरी कुर्सी है . साम दाम दंड भेद  सभी नीतियाँ  यहाँ अपने जोहर का प्रदर्शन करतीं है .देश में मंहगाई, अजगर की भांति मुँह बाये खड़ी है, और जनता सिर्फ मन ही मन गालियाँ सुनाकर उसी मंहगाई में जीने के लिए मजबूर है. हाथ चाहे कितना भी तंग क्यूँ ना हो ? क्या खायेंगे नहीं, पियेंगे नहीं या फेसबुक नही चलाएंगे.  अहा यह तो सबसे महत्वपूर्ण जीने की वजह है .आज के ज़माने की तरह रहना भी हर वर्ग के लोगों की मजबूरी है. आजकल फेसबुक ने इतना रायता फैला रखा है कि पूछो मत. हर कोई उसी रायते में अपनी पांचो उँगलियाँ अजी उँगलियाँ क्यूँ पूरा ही डूबा रहना चाहता है .हाल  ही में एक किसान के बेटे से मिलना हुआ बेहद खुश, प्रसन्नता मुख से झमाझम बारिश की भाँति टपक रही थी,  मोबाइल के प्रभाव में लल्ला ने खेत वेत से ज्यादा फेसबुक दोस्तों को तहरीज प्रदान कर रखी है, एक दिन नेट पेक जैसे ही बंद हुआ बेचारे का पूरा हाजमा बिगड़ जाता है और उसे नेट पेक के चूरन की गोली देने से उसकी हालत में अतिशीघ्र सुधार हुआ . भाई आजकल डाक्टर फेसबुक के पास हर मर्ज की दवा है.. हर रिश्ता इससे प्रभावित हो गया है, सास बहु के रिश्ते भी अछूते नहीं रहे, बहु खाना दे तो ठीक नहीं तो अपना खाना स्वयं बनाओ और अपने साथ साथ मज़बूरी में उसके लिए भी खाना बनाओ.  वैसे भी आजकल इस प्रथा में बदलाव आ गया है. अब तो सास बहु भी फेसबुक के जरिये अपनी वार्ता कर लेतीं है. लोग लड़का देखने जाते है तो पहला प्रश्न क्या खाना बना लेते हो ? भाई शादी करना है तो मिलबांट कर कार्य करना हर रिश्ते की मज़बूरी हो गयी है. आज दुनिया घाघ लोगों से अटी पड़ी है. यहाँ गिद्ध की नजरें हर इंसान के कार्य कर गडी रहती है जैसे ही किसी की कुछ कमजोरी हाथ आये उस पर मज़बूरी का तड़का जल्दी से लगाओ और स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर पेश करो. 
             मिडिया जिसके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा वह आपको तवज्जों जरुर देगी. रोजी रोटी की खातिर कुछ भी प्रस्तुति देना उनकी मज़बूरी है. अभी हाल ही में टीवी पर फरहा खान का नया शो शुरू हुआ है, जिसमे नामचीन कलाकार आपको अपने पसंद के व्यंजन बनाते हुए नजर आयें. शो के प्रथम एपिसोड में अभिषेक बच्चन साजिद, समेट कई नामचीन कलाकार फरहा के शो पर नजर आये थे. फिल्मे ना सही जो काम मिले हथिया लो. कुछ नहीं तो खाना ही बना कर दिखा दो, कुछ काम तो मिला, बड़े परदे के कलाकारों ने मज़बूरी में छोटे परदे का रुख अपना लिया है, और बेचारी जनता खुश होने की बजाय छोटे परदे का बेस्वाद होता रायता खाने के लिए मजबूर है. आप जब भी छोटा बुद्धू बक्सा खोलिए उब भरे फ़िल्मी ड्रामे मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहें हैं.जिसका उपयोग जनता भोजन करते समय जरुर करती है, एक वही समय है जब आदत से मजबूर बिना बुद्धू बक्से के, भोजन गले से नीचे नहीं उतरता है. किन्तु वह भी मनोरंजन के नाम पर ऊबाऊ, रसविहीन और अपचकारी हो गया है,  बेसिरपैर के फ़िल्मी ड्रामे या अवार्ड समारोह के नाम पर उलफुजुल भोंडे भद्दे मजाक देखना दर्शक की मज़बूरी हो गयी है, ऐसे में अब यह फैलारा गले की हड्डी बनता जा रहा है. इसे कहते हैं मंजबूरी, जिसके हाथों सब कठपुतली की तरह नाच रहें है. परदे की हस्तियाँ आगे चलकर आपके बीच नजर आयें तो आश्चर्य ना कीजियेगा . भई मज़बूरी का नाम जिंदगानी है . हम आपका शुक्रिया अदा करना चाहेंगे  कि मज़बूरी में लिखे गए आलेख को आपने ह्रदय से पढ़ लिया. और स्नेह भी प्रदान किया. इसीलिए सब मिलकर बोले  -मज़बूरी देवी जी जय हो . आपकी हर मनोकामना इस मंत्र से जरुर पूर्ण होगी .
                                                       --- शशि पुरवार

Sunday, July 5, 2015

जिंदगी चित्र

नमस्कार मित्रों , आज आपके लिए चित्र मय हाइकु -- शशि पुरवार

Wednesday, July 1, 2015

याद की खुशबु हवा में



गॉँव के बीते दिनों की,
याद आती है मुझे
याद की खुशबु हवा में
गुदगुदाती है मुझे.

धूल से लिपटी सड़क पर
पाँव नंगे दौड़ना
वृक्ष पर लटके  फलों को
मार कंकर तोडना
जीत के हासिल पलों को
दोस्तों से बाँटना
और माँ का प्यार की उन
झिड़कियों से डाँटना

गंध साँसों में घुली है
माटी बुलाती है मुझे
याद  की खुशबु हवा में....

नित सुहानी थी सुबह
हम खेलते थे बाग़ में
हाथ में तितली पकड़ना
खिलखिलाना राग में
मस्त मौला उम्र थी
मासूम फितरत से भरी
भोर शबनम सी  खिली
नम दूब पर जादूगरी.

फूल पत्ते और कलियाँ
फिर रिझाती  है मुझे
याद की खुशबु हवा में ....

गॉँव के परिवेश बदले
आज साँसे तंग है
रौशनी के हर शहर 
जहरी धुएँ के संग है
पत्थरों के आशियाँ है
शुष्क संबंधों भरे
द्वेष की चिंगारियाँ है
नेह खिलने से डरे
वक़्त  की सरगोशियाँ
पल पल डराती है मुझे।
गॉँव के बीते दिनों की
याद आती है मुझे
याद की खुशबु हवा में
गुदगुदाती है मुझे।
-- शशि पुरवार
अनहद कृति -- काव्य उन्मेष उत्सव में इस गीत को सर्वोत्तम छंद काव्य रचना के लिए चुना गया है।

Friday, June 19, 2015

बाँसुरी अधरों छुई





बाँसुरी अधरों छुई
बंशी बजाना आ गया 
बांसवन में गीत गूँजे, राग
अंतस छा गया 

चाँदनी झरती वनों में 
बाँस से लिपटी रही 
लोकधुन  के नग्म गाती 
बाँसुरी, मन आग्रही 

रात्रि की बेला  सुहानी 
मस्त मौसम भा गया. 

गाँठ मन पर थी पड़ी, यह 
बांस  सा  तन  खोखला 
बाँस की हर बस्तियाँ , फिर 
रच रही थीं श्रृंखला 

पॉंव धरती में धँसे 
सोना हरा फलता गया . 

लुप्त होती जा रही है 
बाँस की अनुपम छटा 
वन घनेरे हैं नहीं अब 
धूप की बिखरी जटा 

संतुलन बिगड़ा धरा का,
जेठ,सावन आ गया  
----- शशि पुरवार 




Thursday, May 14, 2015

उजाले पाक है अच्छाईयों में ....


एक ताजा गजल आपके लिए -

कदम  बढ़ते रहे रुसवाइयों में
मिटा दिल का सुकूँ ऊँचाइयों में

जगत, नाते, सभी धन  के सगे हैं
पराये हो रहे कठनाइयों में

मेरे दिल की व्यथा किसको सुनाऊँ
जलाया घर मेरा दंगाइयों में

दिलों में आग जब जलती घृणा की
दिखा है रंज फिर दो भाइयों में

बुरी संगत  अंधेरों में धकेले
उजाले पाक हैं अच्छाइयों में

दिलों में है जवां दिलकश मुहब्बत
जुदा होकर मिले  परछाइयों  में

मिली जन्नत, किताबों में मुझे, अब
मजा आने लगा  तन्हाईयों में

---   शशि पुरवार 

Tuesday, May 5, 2015

नैन मटक्का ----


आजकल व्यंग विधा अच्छा खासी प्रचलित हो गयी है. व्यंगकारों ने अपने व्यंग का ऐसा रायता फैलाया है, कि बड़े बड़े व्यंगकार हक्के बक्के रह गए, अचानक इतने सारे व्यंगकारों का जन्म कैसे हुआ, आपके इस रहस्य की गुत्थी हम सुलझाते है, इसका जन्मदाता फेसबुक है. जिसने अनगिनत व्यंगकारों को अपनी गोदी में खिलाया, लिखना पढना सिखाया और उन्हें आसमान पर बीठा दिया.अजी भेड़ चाल सब जगह कायम है तो फेसबुक पीछे कैसे रह सकता है.

           यहाँ भी हमारे देखते देखते नए व्यंगकारों की अच्छी खासी जमात खड़ी हो गयी है. जिसे देखों मुर्गे की एक टांग लिए हर किसी की चिकोटी काट रहा है, कोई कविता को लेकर फिरके कस रहा है कोई किसी के फैशन की धज्जियाँ उड़ा  है. कोई महिलाओं की तस्वीरें देखकर गिरा पड़ा हुआ है तो कोई पुरुष अपनी हर अदा दिखाने के लिए रोज तस्वीरें ऐसे बदलतें हैं जैसे विश्व सुंदरी अपने अलग अलग पोज दुनियाँ को दिखाना चाहती है,  हमारे यहाँ के चम्मच मोटे थुलथुले शरीर में भी सौन्दर्य की सुंदरी वाली परिकाष्ठा अपनी बैचेन नजरों से देखतें हैं. ऐसे फीता काटने वालों की कोई कमी नहीं है.
          हाल ही मै भारत वर्ल्ड कप में हार गया तो सारा ठीकरा अनुष्का शर्मा के सर पर फोड़ा गया, आखिर यह गुत्थी सुलझी ही नहीं कि बालकनी में बैठी हुई अनुष्का मैच कैसे हरा सकती है या फिर हमारे क्रिकेटरों का ध्यान मैच से ज्यादा विराट कोहली और अनुष्का शर्मा पर लगा हुआ था. वैसे भी जनता  यदि इंसान को भगवान बनाएगी तो यही हाल होगा. एक किस्सा और जहन में ध्यान आ रहा है, कुछ पुरुष ऐसे भी है जिनकी उम्र अपने अंतिम पड़ाव पर  है और वह नजरें सेकने से लेकर  महिलाओं पर कुदृष्टि डालने से बाज नहीं आतें हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगी, बुजुर्ग हस्तियाँ इस तरह के कार्य करके युवा पीडी को क्या सन्देश दे रहीं है, जहाँ भरोसा कायम होना चाहिए वहां ऐसी बचकानी हरकतें , आखिर पूजने वाला उन्हें क्या दर्जा प्रदान करेगा. ऐसी हरकतों पर धज्जिया उडाना कोई हमारे कुएँ के मेढकों से सीखे.
           यही हाल कमोवेश लगभग फेसबुक पर भी मौजूद है. घर से दुनीया को जोड़ने वाली खिड़की पर सभी की नजर है, यहाँ भी रायता फ़ैलाने वालों की कमी नहीं है. कौन किससे चोंच लड़ा रहा है, कौन किसका अच्छा मित्र शुभचिंतक है, खोजी नजरें अपना कार्य करके आग लगाने का कार्य बखूबी पूर्ण शिद्दत से निभातीं है, आखिर व्यंग और कटाक्ष में हमारे जैसा सिस्टम मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं.
               एक दिन ऐसे ही अचानक हमारे जादुई बक्से की खिड़की खुली और सन्देश मिला क्या बात है आप बहुत बहुत सुन्दर हैं, हर तरफ छाई हुई हैं, जहाँ देखिये छप रहीं है. आखिर  इन जनाब का हाजमा किस बात से बिगड़ा, कुछ समझ नहीं आया, ऐसे लोगों को कोई क्या जबाब दे सकता है.  एक और हमारे भलेमानस शुभचिंतक है, जो कहते है सतर्क रहो आगे बढ़ाने वाले ही आपको पटकनी देंगे, कुछ प्यारे सखा सहेली आगे बढ़ने से इतना नाराज हो गए कि कमतर दिखाने का कार्य पूर्ण शिद्दत से करने लगे और व्यंग के सारे रंग हमें लगाने लगे, उन्हें यह समझ ही नहीं आया इससे उनकी ही कलई   खुली है हम तो वहीँ अपनी कछुए वाली निति चले जा रहें हैं. क्यूंकि हमें तो रेस में कोई रूचि ही नहीं है .
         आजकल मानसून के बदमिजाज मौसम की तरह व्यंग बारिश कहीं भी शुरू हो जाती है. व्यंग विधा में आये नए नए कई रचनाकारों ने बड़े बड़े रचनाकारों के कान काटना शुरू कर दियें हैं. हरिशंकर परसाई जी के व्यंग नए कदमों को अपनी सिद्धहस्त कला का ज्ञान प्रदान करतें हैं. किन्तु अचानक फेसबुकी स्टार बने हुए व्यंकारों ने अपनी स्वयं की विधा को ईजाद कर लिया है, स्वयं को नामचीन व्यंगकार कहने वाले फेसबूकी व्यंगकारों ने हर किसी को अपने लपेटे में लेना प्रारंभ कर दिया है. वे वहां सर्वप्रथम संपादक को ढूंढते हैं , उनसे मित्रता बढ़ाते हैं और बार बार निवेदन करके मित्रता की खातिर खुद को स्थापित करने का प्रयास करतें है, हाल ही में एक किस्सा हुआ, हमने अभी अभी व्यंग विधा की गलियों में अपने पैर रखे, गाहे बगाहे पाठकों ने स्वागत किया, तो जनाब सिखने के बहाने हमने अपनी कलम घिसना प्रारंभ कर दी. हमारे प्रिय संपादकों को लेखन पसंद आया तो उन्होंने हमारी कलम को एक कुर्सी प्रदान कर सम्मान से नवाज दिया, खैर हमने स्वयं को विधार्थी मान कर कुर्सी को गुरु बनाना उचित समझा, किन्तु यह क्या फेसबुक के कई नए व्यंगकारों की नजर हमारी कुर्सी पर पड़ी और उन्होंने चाट में चुपचाप मक्खन लगाना प्रारंभ कर दिया, हमारी रचना को भी छपवा दीजिये, आप हमारी मित्र है, आपका बहुत नाम है ...आपको हर कोई छापता है  वैगेरह वैगेरह ... मित्रता की खातिर हमने उन्हें संपादकों के संपर्क की जानकारी प्रदान कर की, किन्तु वह सामग्री भेजने के बाद भी प्रकाशित नहीं हुई . तो उन्ही नामचीन रचनाकारों के बीच हम अमित्र होने लगे क्यूंकि हमारा यह दोष है कि उनकी रचना प्रकाशित नहीं हुई लो भाई नेकी भी की और कुएं में धकलने की तैयारी भी हमारी ही की गयी है . हम तो यही कहंगे कर्म करते रहिये फल की चिंता ना कीजिये . शुक्र है हमें कुर्सी का चस्का नहीं लगा और ना ही मक्खन की डालियाँ हमें भगवान बना सकीं . हम तो वह पैदल है जो सिर्फचलना जानता है. बाकी के दौंव पेंच खेलने के लिए अन्य लोग है तो यह कार्य उन्ही के जिम्मे छोड़तें हैं. आसमान में चमक रहे फेसबूक के हर रंग का आनंद लेतें हैं . 
                                          
                                                                             ------ शशि पुरवार
                                       
                                    --- शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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