भीड़ भरे शहरों में जीना
मुश्किल लगता है
धूल धुआँ भी खुली हवा में
शामिल लगता है
कोलाहल की इस बस्ती में
झूठी सब कसमें
अस्त व्यस्त जीवन जीने की
निभा रहे रसमें
सपनों की अंधी नगरी में
सपनों की अंधी नगरी में
धूमिल लगता है
सुबह दोपहर, साँझ, ढले तक
कलरव गीत नहीं
कहने को सब संगी साथी
पर मनमीत नहीं
एकाकीपन ही जीवन में
हासिल लगता है
हर चौखट से बाहर आती
राम कहानी है
कातर नज़रों से बहता, क्या
गंदा पानी है
मदिरा में डूबे रहना ही
महफ़िल लगता है
शशि पुरवार










