Tuesday, July 28, 2015
Tuesday, July 21, 2015
व्यंग -मज़बूरी कैसी कैसी ----
मज़बूरी शब्द कहतें
ही किसी फ़िल्मी सीन की तरह, हालात के शिकार मजबूर नायक –नायिका का दृश्य नज़रों के सम्मुख मन
के चित्रपटल पर उभरता है, जिसमे हीरो ,हिरोइन को मज़बूरी में सहारा देता है या खलनायक उसकी मज़बूरी का फ़ायदा
उठाता है . ...पर जनाब अब इस दृश्य में बेहद परिवर्तन आ गएँ हैं. वह कहावत तो आप
सभी ने सुनी होगी कि मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी .. सच आजकल की पीढ़ी ने इस कहावत
को चरितार्थ कर दिया है. मकबूल साधो अब हम क्या कहें, आज हम आपको मज़बूरी के भिन्न
भिन्न प्रकारों से अवगत करातें है.
अब यह ना सोचे कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा हैं, भई किसी और को क्या मूर्ख बनाएँ हम स्वयं इसी महान मज़बूरी का शिकार हो चले हैं, हाँ हाँ मज़बूरी का शिकार आपसे अपनी इस मज़बूरी को साझा करतें है, हमारी मज़बूरी यह है कि संपादक और पाठकों के स्नेहिल निवेदन से हम आइसक्रीम की तरह पिघले हुए है और आपको वह पिघली हुई क्रीमी आइसक्रीम शब्दों की चोकलेट से सजाकर पेश कर रहें हैं.. कलम घिसना भी किसी मज़बूरी से कम नहीं हैं. समाज को आइना दिखाना हमारी मज़बूरी है, यही मज़बूरी कब कहाँ किसी के काम आकर कुछ भला करे दे, इसका किसी को अंदाजा नहीं होता हैं.यह हमारी जिम्मेदारी है जिसे हमें हर हाल में निभाना होता है , फिर वक़्त के अनुसार खुद को अपडेट भी रखना भी हमारी मजबूरी है .इसीलिए समाज के अपडेट लिखना आप मज़बूरी कहें या कार्य यह मुद्दा आपकी बहस के लिए छोड़ देतें हैं.. किन्तु हमें हर हाल में लिखना ही होगा , भाव आयें तो प्रसंन्नता की बात है किन्तु भाव नहीं आएं तो दिमाग को हिला हिला कर निचोड़ कर भाव की स्याही से कलम को घिसना पड़ता है. शिष्टता के कारण लिखना अब हमारी मजबूरी हो गयी और हमें पढना आपकी, यानि एक अच्छे पाठक की मजबूरी है, हमारी मेहनत के बाद आपने नहीं पढ़ा तो किताब आपके सामने पड़ी पड़ी आपके गले की हड्डी बन जाएगी. वह आई और आपने उसके पन्नो पर नजर तक नहीं घुमाई .इस दुःख को निगलने से पहले हमारी इस पीढ़ा को जरुर समझेंगे. हमें पूर्ण विश्वास है कि आप हमें जरुर पढेंगे, चाहे हमने कितनी भी बकबाद क्यूँ ना की हो.
अब यह ना सोचे कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा हैं, भई किसी और को क्या मूर्ख बनाएँ हम स्वयं इसी महान मज़बूरी का शिकार हो चले हैं, हाँ हाँ मज़बूरी का शिकार आपसे अपनी इस मज़बूरी को साझा करतें है, हमारी मज़बूरी यह है कि संपादक और पाठकों के स्नेहिल निवेदन से हम आइसक्रीम की तरह पिघले हुए है और आपको वह पिघली हुई क्रीमी आइसक्रीम शब्दों की चोकलेट से सजाकर पेश कर रहें हैं.. कलम घिसना भी किसी मज़बूरी से कम नहीं हैं. समाज को आइना दिखाना हमारी मज़बूरी है, यही मज़बूरी कब कहाँ किसी के काम आकर कुछ भला करे दे, इसका किसी को अंदाजा नहीं होता हैं.यह हमारी जिम्मेदारी है जिसे हमें हर हाल में निभाना होता है , फिर वक़्त के अनुसार खुद को अपडेट भी रखना भी हमारी मजबूरी है .इसीलिए समाज के अपडेट लिखना आप मज़बूरी कहें या कार्य यह मुद्दा आपकी बहस के लिए छोड़ देतें हैं.. किन्तु हमें हर हाल में लिखना ही होगा , भाव आयें तो प्रसंन्नता की बात है किन्तु भाव नहीं आएं तो दिमाग को हिला हिला कर निचोड़ कर भाव की स्याही से कलम को घिसना पड़ता है. शिष्टता के कारण लिखना अब हमारी मजबूरी हो गयी और हमें पढना आपकी, यानि एक अच्छे पाठक की मजबूरी है, हमारी मेहनत के बाद आपने नहीं पढ़ा तो किताब आपके सामने पड़ी पड़ी आपके गले की हड्डी बन जाएगी. वह आई और आपने उसके पन्नो पर नजर तक नहीं घुमाई .इस दुःख को निगलने से पहले हमारी इस पीढ़ा को जरुर समझेंगे. हमें पूर्ण विश्वास है कि आप हमें जरुर पढेंगे, चाहे हमने कितनी भी बकबाद क्यूँ ना की हो.
वैसे इस मुकम्मल जहाँ
में हर इंसान मजबूर है.चाहे घर हो या बाहर. काहे कि हर काम मज़बूरी में ही किये
जातें है, कैसे, तो सुनिए जैसे पति पत्नी को आपस में रिश्ता निभाना मजबूरी है, रोज
रोज की खिटखिट – पिट –पिट, चाहे कितने नगाडे बजाये किन्तु वे सदैव एक दूजे के बने
रहेंगे . पत्नी भोजन जला दे तो भी मुस्कुरा कर खाओ, प्रेम से अच्छा भोजन से दे तो
खूब खाओ, किन्तु खाओ, उसी प्रकार पति लाख
झगडा करे तो उसे मनाओ और खिला खिला कर मनाओ, अजी मनाओ क्या बदला निकालो, भई कहतें
हैं ना, मारो तो प्रेम से मारो, आजकल यही तकनीक हमारी युवा पीढ़ी ने भी प्रारंभ कर
की है , आज के युवा रसोई घर में कंधे से कन्धा मिला रहें हैं. आज पुरुष कहने लगे
हैं हम महिला के शिकार है तो महिलाएं अक्सर पुरुषों की शिकार होती है, अब यह सत्य
तो ईश्वर ही जाने, भई दूसरों के मामले में टांग अडाने से वह भी घबरातें है. इस गृह
युद्ध में तो श्रीकृष्ण का चक्र भी काम नहीं आता है.गृह हो या बाहर आप कहीं भी
कार्य करें, मज़बूरी हर जगह विधमान है, कहीं वह बॉस बनकर हुकूमत करती है, कहीं
दयनीय जिन्दगी बनी हुई है. इसीलिए ईश्वर
ने हर इंसान को कार्य करने के लिए मजबूर किया है. कार्य करो, पढो –लिखो ,कमाओ और
परिवार चलाओ, वक़्त आये तो देश भी चलाओ.
अजी आज देश के हालात भी कुछ इसी तरह हो गएँ हैं. देश तरक्की चाहता है, बदलाव हर
हाल में आवश्यक है किन्तु नेता कुर्सी के मद में डूबे हुए आपस में क्लेश करते
रहतें है और बेचारी जनता उनके हाथों मजबूर है. नेताजी की मज़बूरी कुर्सी है . साम
दाम दंड भेद सभी नीतियाँ यहाँ अपने जोहर का प्रदर्शन करतीं है .देश में
मंहगाई, अजगर की भांति मुँह बाये खड़ी है, और जनता सिर्फ मन ही मन गालियाँ सुनाकर
उसी मंहगाई में जीने के लिए मजबूर है. हाथ चाहे कितना भी तंग क्यूँ ना हो ? क्या
खायेंगे नहीं, पियेंगे नहीं या फेसबुक नही चलाएंगे. अहा यह तो सबसे महत्वपूर्ण जीने की वजह है .आज
के ज़माने की तरह रहना भी हर वर्ग के लोगों की मजबूरी है. आजकल फेसबुक ने इतना
रायता फैला रखा है कि पूछो मत. हर कोई उसी रायते में अपनी पांचो उँगलियाँ अजी
उँगलियाँ क्यूँ पूरा ही डूबा रहना चाहता है .हाल ही में एक किसान के बेटे से मिलना हुआ बेहद खुश,
प्रसन्नता मुख से झमाझम बारिश की भाँति टपक रही थी, मोबाइल के प्रभाव में लल्ला ने खेत वेत से
ज्यादा फेसबुक दोस्तों को तहरीज प्रदान कर रखी है, एक दिन नेट पेक जैसे ही बंद हुआ
बेचारे का पूरा हाजमा बिगड़ जाता है और उसे नेट पेक के चूरन की गोली देने से उसकी
हालत में अतिशीघ्र सुधार हुआ . भाई आजकल डाक्टर फेसबुक के पास हर मर्ज की दवा है..
हर रिश्ता इससे प्रभावित हो गया है, सास बहु के रिश्ते भी अछूते नहीं रहे, बहु
खाना दे तो ठीक नहीं तो अपना खाना स्वयं बनाओ और अपने साथ साथ मज़बूरी में उसके लिए
भी खाना बनाओ. वैसे भी आजकल इस प्रथा में बदलाव आ गया है. अब तो सास बहु भी फेसबुक
के जरिये अपनी वार्ता कर लेतीं है. लोग लड़का देखने जाते है तो पहला प्रश्न क्या
खाना बना लेते हो ? भाई शादी करना है तो मिलबांट कर कार्य करना हर रिश्ते की
मज़बूरी हो गयी है. आज दुनिया घाघ लोगों से अटी पड़ी है. यहाँ गिद्ध की नजरें हर
इंसान के कार्य कर गडी रहती है जैसे ही किसी की कुछ कमजोरी हाथ आये उस पर मज़बूरी
का तड़का जल्दी से लगाओ और स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर पेश करो.
मिडिया जिसके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा वह आपको तवज्जों जरुर देगी. रोजी रोटी की खातिर कुछ भी प्रस्तुति देना उनकी मज़बूरी है. अभी हाल ही में टीवी पर फरहा खान का नया शो शुरू हुआ है, जिसमे नामचीन कलाकार आपको अपने पसंद के व्यंजन बनाते हुए नजर आयें. शो के प्रथम एपिसोड में अभिषेक बच्चन साजिद, समेट कई नामचीन कलाकार फरहा के शो पर नजर आये थे. फिल्मे ना सही जो काम मिले हथिया लो. कुछ नहीं तो खाना ही बना कर दिखा दो, कुछ काम तो मिला, बड़े परदे के कलाकारों ने मज़बूरी में छोटे परदे का रुख अपना लिया है, और बेचारी जनता खुश होने की बजाय छोटे परदे का बेस्वाद होता रायता खाने के लिए मजबूर है. आप जब भी छोटा बुद्धू बक्सा खोलिए उब भरे फ़िल्मी ड्रामे मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहें हैं.जिसका उपयोग जनता भोजन करते समय जरुर करती है, एक वही समय है जब आदत से मजबूर बिना बुद्धू बक्से के, भोजन गले से नीचे नहीं उतरता है. किन्तु वह भी मनोरंजन के नाम पर ऊबाऊ, रसविहीन और अपचकारी हो गया है, बेसिरपैर के फ़िल्मी ड्रामे या अवार्ड समारोह के नाम पर उलफुजुल भोंडे भद्दे मजाक देखना दर्शक की मज़बूरी हो गयी है, ऐसे में अब यह फैलारा गले की हड्डी बनता जा रहा है. इसे कहते हैं मंजबूरी, जिसके हाथों सब कठपुतली की तरह नाच रहें है. परदे की हस्तियाँ आगे चलकर आपके बीच नजर आयें तो आश्चर्य ना कीजियेगा . भई मज़बूरी का नाम जिंदगानी है . हम आपका शुक्रिया अदा करना चाहेंगे कि मज़बूरी में लिखे गए आलेख को आपने ह्रदय से पढ़ लिया. और स्नेह भी प्रदान किया. इसीलिए सब मिलकर बोले -मज़बूरी देवी जी जय हो . आपकी हर मनोकामना इस मंत्र से जरुर पूर्ण होगी .
--- शशि पुरवार
मिडिया जिसके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा वह आपको तवज्जों जरुर देगी. रोजी रोटी की खातिर कुछ भी प्रस्तुति देना उनकी मज़बूरी है. अभी हाल ही में टीवी पर फरहा खान का नया शो शुरू हुआ है, जिसमे नामचीन कलाकार आपको अपने पसंद के व्यंजन बनाते हुए नजर आयें. शो के प्रथम एपिसोड में अभिषेक बच्चन साजिद, समेट कई नामचीन कलाकार फरहा के शो पर नजर आये थे. फिल्मे ना सही जो काम मिले हथिया लो. कुछ नहीं तो खाना ही बना कर दिखा दो, कुछ काम तो मिला, बड़े परदे के कलाकारों ने मज़बूरी में छोटे परदे का रुख अपना लिया है, और बेचारी जनता खुश होने की बजाय छोटे परदे का बेस्वाद होता रायता खाने के लिए मजबूर है. आप जब भी छोटा बुद्धू बक्सा खोलिए उब भरे फ़िल्मी ड्रामे मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहें हैं.जिसका उपयोग जनता भोजन करते समय जरुर करती है, एक वही समय है जब आदत से मजबूर बिना बुद्धू बक्से के, भोजन गले से नीचे नहीं उतरता है. किन्तु वह भी मनोरंजन के नाम पर ऊबाऊ, रसविहीन और अपचकारी हो गया है, बेसिरपैर के फ़िल्मी ड्रामे या अवार्ड समारोह के नाम पर उलफुजुल भोंडे भद्दे मजाक देखना दर्शक की मज़बूरी हो गयी है, ऐसे में अब यह फैलारा गले की हड्डी बनता जा रहा है. इसे कहते हैं मंजबूरी, जिसके हाथों सब कठपुतली की तरह नाच रहें है. परदे की हस्तियाँ आगे चलकर आपके बीच नजर आयें तो आश्चर्य ना कीजियेगा . भई मज़बूरी का नाम जिंदगानी है . हम आपका शुक्रिया अदा करना चाहेंगे कि मज़बूरी में लिखे गए आलेख को आपने ह्रदय से पढ़ लिया. और स्नेह भी प्रदान किया. इसीलिए सब मिलकर बोले -मज़बूरी देवी जी जय हो . आपकी हर मनोकामना इस मंत्र से जरुर पूर्ण होगी .
--- शशि पुरवार
Sunday, July 5, 2015
जिंदगी चित्र
नमस्कार मित्रों , आज आपके लिए चित्र मय हाइकु -- शशि पुरवार
Wednesday, July 1, 2015
याद की खुशबु हवा में
गॉँव के बीते दिनों की,
याद आती है मुझे
याद की खुशबु हवा में
गुदगुदाती है मुझे.
धूल से लिपटी सड़क पर
पाँव नंगे दौड़ना
वृक्ष पर लटके फलों को
मार कंकर तोडना
जीत के हासिल पलों को
दोस्तों से बाँटना
और माँ का प्यार की उन
झिड़कियों से डाँटना
झिड़कियों से डाँटना
गंध साँसों में घुली है
माटी बुलाती है मुझे
याद की खुशबु हवा में....
नित सुहानी थी सुबह
हम खेलते थे बाग़ में
हाथ में तितली पकड़ना
खिलखिलाना राग में
मस्त मौला उम्र थी
मासूम फितरत से भरी
भोर शबनम सी खिली
नम दूब पर जादूगरी.
फूल पत्ते और कलियाँ
फिर रिझाती है मुझे
याद की खुशबु हवा में ....
गॉँव के परिवेश बदले
आज साँसे तंग है
रौशनी के हर शहर
जहरी धुएँ के संग है
जहरी धुएँ के संग है
पत्थरों के आशियाँ है
शुष्क संबंधों भरे
द्वेष की चिंगारियाँ है
नेह खिलने से डरे
वक़्त की सरगोशियाँ
पल पल डराती है मुझे।
गॉँव के बीते दिनों की
याद आती है मुझे
याद की खुशबु हवा में
गुदगुदाती है मुझे।
-- शशि पुरवार
अनहद कृति -- काव्य उन्मेष उत्सव में इस गीत को सर्वोत्तम छंद काव्य रचना के लिए चुना गया है।
गॉँव के बीते दिनों की
याद आती है मुझे
याद की खुशबु हवा में
गुदगुदाती है मुझे।
-- शशि पुरवार
अनहद कृति -- काव्य उन्मेष उत्सव में इस गीत को सर्वोत्तम छंद काव्य रचना के लिए चुना गया है।
Friday, June 19, 2015
बाँसुरी अधरों छुई
बाँसुरी अधरों छुई
बंशी बजाना आ गया
बांसवन में गीत गूँजे, राग
अंतस छा गया
चाँदनी झरती वनों में
बाँस से लिपटी रही
लोकधुन के नग्म गाती
बाँसुरी, मन आग्रही
रात्रि की बेला सुहानी
मस्त मौसम भा गया.
गाँठ मन पर थी पड़ी, यह
बांस सा तन खोखला
बाँस की हर बस्तियाँ , फिर
रच रही थीं श्रृंखला
पॉंव धरती में धँसे
सोना हरा फलता गया .
लुप्त होती जा रही है
बाँस की अनुपम छटा
वन घनेरे हैं नहीं अब
धूप की बिखरी जटा
संतुलन बिगड़ा धरा का,
जेठ,सावन आ गया
----- शशि पुरवार
Thursday, May 14, 2015
उजाले पाक है अच्छाईयों में ....
एक ताजा गजल आपके लिए -
कदम बढ़ते रहे रुसवाइयों में
मिटा दिल का सुकूँ ऊँचाइयों में
जगत, नाते, सभी धन के सगे हैं
पराये हो रहे कठनाइयों में
मेरे दिल की व्यथा किसको सुनाऊँ
जलाया घर मेरा दंगाइयों में
दिलों में आग जब जलती घृणा की
दिखा है रंज फिर दो भाइयों में
बुरी संगत अंधेरों में धकेले
उजाले पाक हैं अच्छाइयों में
दिलों में है जवां दिलकश मुहब्बत
जुदा होकर मिले परछाइयों में
मिली जन्नत, किताबों में मुझे, अब
मजा आने लगा तन्हाईयों में
--- शशि पुरवार
Tuesday, May 5, 2015
नैन मटक्का ----
आजकल व्यंग विधा
अच्छा खासी प्रचलित हो गयी है. व्यंगकारों ने अपने व्यंग का ऐसा रायता फैलाया
है, कि बड़े बड़े व्यंगकार हक्के बक्के रह गए, अचानक इतने सारे व्यंगकारों का जन्म
कैसे हुआ, आपके इस रहस्य की गुत्थी हम सुलझाते है, इसका जन्मदाता फेसबुक है. जिसने
अनगिनत व्यंगकारों को अपनी गोदी में खिलाया, लिखना पढना सिखाया और उन्हें आसमान पर
बीठा दिया.अजी भेड़ चाल सब जगह कायम है तो फेसबुक पीछे कैसे रह सकता है.
यहाँ भी
हमारे देखते देखते नए व्यंगकारों की अच्छी खासी जमात खड़ी हो गयी है. जिसे देखों
मुर्गे की एक टांग लिए हर किसी की चिकोटी काट रहा है, कोई कविता को लेकर फिरके कस
रहा है कोई किसी के फैशन की धज्जियाँ उड़ा
है. कोई महिलाओं की तस्वीरें देखकर गिरा पड़ा हुआ है तो कोई पुरुष अपनी हर
अदा दिखाने के लिए रोज तस्वीरें ऐसे बदलतें हैं जैसे विश्व सुंदरी अपने अलग अलग पोज
दुनियाँ को दिखाना चाहती है, हमारे यहाँ
के चम्मच मोटे थुलथुले शरीर में भी सौन्दर्य की सुंदरी वाली परिकाष्ठा अपनी बैचेन
नजरों से देखतें हैं. ऐसे फीता काटने वालों की कोई कमी नहीं है.
हाल ही मै भारत
वर्ल्ड कप में हार गया तो सारा ठीकरा अनुष्का शर्मा के सर पर फोड़ा गया, आखिर यह
गुत्थी सुलझी ही नहीं कि बालकनी में बैठी हुई अनुष्का मैच कैसे हरा सकती है या फिर
हमारे क्रिकेटरों का ध्यान मैच से ज्यादा विराट कोहली और अनुष्का शर्मा पर लगा हुआ
था. वैसे भी जनता यदि इंसान को भगवान
बनाएगी तो यही हाल होगा. एक किस्सा और जहन में ध्यान आ रहा है, कुछ पुरुष ऐसे भी
है जिनकी उम्र अपने अंतिम पड़ाव पर है और
वह नजरें सेकने से लेकर महिलाओं पर
कुदृष्टि डालने से बाज नहीं आतें हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगी, बुजुर्ग हस्तियाँ इस
तरह के कार्य करके युवा पीडी को क्या सन्देश दे रहीं है, जहाँ भरोसा कायम होना
चाहिए वहां ऐसी बचकानी हरकतें , आखिर पूजने वाला उन्हें क्या दर्जा प्रदान करेगा.
ऐसी हरकतों पर धज्जिया उडाना कोई हमारे कुएँ के मेढकों से सीखे.
यही हाल कमोवेश
लगभग फेसबुक पर भी मौजूद है. घर से दुनीया को जोड़ने वाली खिड़की पर सभी की नजर है,
यहाँ भी रायता फ़ैलाने वालों की कमी नहीं है. कौन किससे चोंच लड़ा रहा है, कौन किसका
अच्छा मित्र शुभचिंतक है, खोजी नजरें अपना कार्य करके आग लगाने का कार्य बखूबी
पूर्ण शिद्दत से निभातीं है, आखिर व्यंग और कटाक्ष में हमारे जैसा सिस्टम मिलना
मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं.
एक दिन ऐसे ही अचानक हमारे जादुई बक्से की खिड़की
खुली और सन्देश मिला क्या बात है आप बहुत बहुत सुन्दर हैं, हर तरफ छाई हुई हैं,
जहाँ देखिये छप रहीं है. आखिर इन जनाब का हाजमा किस बात से बिगड़ा, कुछ समझ नहीं
आया, ऐसे लोगों को कोई क्या जबाब दे सकता है. एक और हमारे भलेमानस शुभचिंतक है, जो कहते है
सतर्क रहो आगे बढ़ाने वाले ही आपको पटकनी देंगे, कुछ प्यारे सखा सहेली आगे बढ़ने से
इतना नाराज हो गए कि कमतर दिखाने का कार्य पूर्ण शिद्दत से करने लगे और व्यंग के
सारे रंग हमें लगाने लगे, उन्हें यह समझ ही नहीं आया इससे उनकी ही कलई खुली है
हम तो वहीँ अपनी कछुए वाली निति चले जा रहें हैं. क्यूंकि हमें तो रेस में कोई
रूचि ही नहीं है .
आजकल मानसून के बदमिजाज मौसम की तरह व्यंग बारिश कहीं भी शुरू
हो जाती है. व्यंग विधा में आये नए नए कई रचनाकारों ने बड़े बड़े रचनाकारों के कान
काटना शुरू कर दियें हैं. हरिशंकर परसाई जी के व्यंग नए कदमों को अपनी सिद्धहस्त
कला का ज्ञान प्रदान करतें हैं. किन्तु अचानक फेसबुकी स्टार बने हुए व्यंकारों ने
अपनी स्वयं की विधा को ईजाद कर लिया है, स्वयं को नामचीन व्यंगकार कहने वाले
फेसबूकी व्यंगकारों ने हर किसी को अपने लपेटे में लेना प्रारंभ कर दिया है. वे
वहां सर्वप्रथम संपादक को ढूंढते हैं , उनसे मित्रता बढ़ाते हैं और बार बार निवेदन
करके मित्रता की खातिर खुद को स्थापित करने का प्रयास करतें है, हाल ही में एक
किस्सा हुआ, हमने अभी अभी व्यंग विधा की गलियों में अपने पैर रखे, गाहे बगाहे
पाठकों ने स्वागत किया, तो जनाब सिखने के बहाने हमने अपनी कलम घिसना प्रारंभ कर दी.
हमारे प्रिय संपादकों को लेखन पसंद आया तो उन्होंने हमारी कलम को एक कुर्सी प्रदान
कर सम्मान से नवाज दिया, खैर हमने स्वयं को विधार्थी मान कर कुर्सी को गुरु बनाना
उचित समझा, किन्तु यह क्या फेसबुक के कई नए व्यंगकारों की नजर हमारी कुर्सी पर पड़ी
और उन्होंने चाट में चुपचाप मक्खन लगाना प्रारंभ कर दिया, हमारी रचना को भी छपवा
दीजिये, आप हमारी मित्र है, आपका बहुत नाम है ...आपको हर कोई छापता है वैगेरह वैगेरह ... मित्रता की खातिर हमने
उन्हें संपादकों के संपर्क की जानकारी प्रदान कर की, किन्तु वह सामग्री भेजने के
बाद भी प्रकाशित नहीं हुई . तो उन्ही नामचीन रचनाकारों के बीच हम अमित्र होने लगे
क्यूंकि हमारा यह दोष है कि उनकी रचना प्रकाशित नहीं हुई लो भाई नेकी भी की और कुएं
में धकलने की तैयारी भी हमारी ही की गयी है . हम तो यही कहंगे कर्म करते रहिये फल
की चिंता ना कीजिये . शुक्र है हमें कुर्सी का चस्का नहीं लगा और ना ही मक्खन की
डालियाँ हमें भगवान बना सकीं . हम तो वह पैदल है जो सिर्फचलना जानता है. बाकी के
दौंव पेंच खेलने के लिए अन्य लोग है तो यह कार्य उन्ही के जिम्मे छोड़तें हैं.
आसमान में चमक रहे फेसबूक के हर रंग का आनंद लेतें हैं .
------ शशि पुरवार
------ शशि पुरवार
Monday, April 27, 2015
प्रेम कहानी
१
दर्द की दास्ताँ
कह गयी कहानी
प्रेम रूमानी
२
एक ही धुन
भरनी है गागर
फूल सगुन
३
प्रेम कहानी
मुहब्बत ऐ ताज
पीर जुबानी
४
रूह में बसी
जवां है मोहब्बत
खामोश हंसी
५
धरा की गोद
श्वेत ताजमहल
प्रेम का स्त्रोत
६
ख़ामोश प्रेम
दफ़न है दास्ताँ
ताज की रूह
७
पाक दामन
अप्रतिम सौन्दर्य
प्रेम पावन
८
अमर कृति
हुस्न ऐ मोहब्बत
प्रेम सम्प्रति
९
ताजमहल
अनगिन रहस्य
यादें दफ़न
-
शशि।.
Saturday, April 25, 2015
जब मुकद्दर आजमाना आ गया
जब मुकद्दर आजमाना आ गया
वक़्त भी अपना सुहाना आ गया
झूमती हैं डालियाँ गुलशन सजे
ये समां भी कातिलाना आ गया
ठूंठ की इन बस्तियों को देखिये
शामे गम महफ़िल सजाना आ गया
आदमी जब राम से रावण बने
आग में खुद को जलाना आ गया
दर्द जब मन की हवेली के मरे
रफ्ता रफ्ता मुस्कुराना आ गया
भागते हैं लोग अंधी दौड़ में
मार औरों को गिराना आ गया
जालिमों के हाथ में हथियार हैं
खौफ़ो वहशत का ज़माना आ गया
मौत से अब डर नहीं लगता मुझे
जिंदगी को गुनगुनाना आ गया
-- शशि पुरवार
Tuesday, April 21, 2015
हाइकु -- सुख की ठाँव
सुख की ठाँव
जीवन के दो रंग
धूप औ छाँव
भ्रष्ट अमीरी
डोल गया ईमान
तंग गरीबी
शब्दो का मोल
बदली परिभाषा
थोथे है बोल
मन के काले
धूर्तता आवरण
सफेदपोश
--- शशि पुरवार
Monday, April 20, 2015
कागा -- मन के भोले
१
एक ही धुन
भरनी है गागर
फूल सगुन
२
दर्द की नदी
कहानी लिख रही
ये नई सदी
३
तन के काले
मूक सक्षम पक्षी
मुंडेर संभाले
४
कर्कश बोली
संकट पहँचाने
कागा की टोली
५
मूक है प्राणी
कौवा अभिमानी
कोई न सानी।
६
भोली सूरत
क्यों कागा बदनाम
छलिया नाम
७
कोयल साथी
धर्म कर्म के नाम
कागा खैराती
--- शशि पुरवार
आपके समक्ष एकसत्य घटना साझा करना चाहती हूँ कोई माने या ना माने एक सत्य को मैंने यह सत्य करीब से जिया है , इस निरीह प्राणी को स्नेह समझ आता है बोली समझ आती है। एक दो पोस्टिंग पर मैंने यह अनुभव लिया है , कौवा रोज सुबह रसोईघर की खिड़की पर बैठकर वही भोजन मेरे हाथों से खाता था जो बनाती थी , धीरे धीरे उसके भाव समझने की कोशिश की तब यह आश्चर्य था उसे जो भी चाहिए उस वस्तु पर हाथ रखो तो वही खाने के लिए कॉँव कॉँव करता था , जो नहीं चाहिए उस पर से नजर हटा दी । कोई और दे तो नहीं खाता था घर वाले हैरान थे वह मेरी बात समझ रहाहै जब वह शहर छोड़ा तब २ दिन कागा ने कुछ नहीं खाया , ट्रक में जैसे ही सामान भर गया, मैंने किसी का रोदन सुना , कोई आसपास नहीं दिखा , तब एक पेड़ पर वही कौवा बैठा था , उसके गले की हलचल और आवाज देखकर मै हैरान थी कि पक्षी रो रहा है। वहां खड़े लोगों ने यह आश्चर्य देखा है। सोचा जाते जाते पानी पिला देती हूँ पानी भर कर रखा वहउतरा किन्तु उसने पानी नहीं पिया। यह हृदय को छू गयी सत्य घटना है जिसने कागा के लिए मेरी सोच बदल दी। स्नेह सर्वोपरि है.
मेरे लिएयह रोमांचकारी था ,एक किस्सा और बताती हों मै जब मावा बनाती थी तब वह मावा विशेष रूप से पसंद करता था जब तक नहीं दो कॉँव कॉँव बंद ही नहीं होती थी। यह हमें ज्ञात है कि पशुपक्षी केलिए घी तेल हानिकारक होते हैं इसीलिए ऊँगली में जरा सा मावा रखकर खिड़की से बाहर हाथ रखती थी और वह इधर उधर ऐसे देखता था कि कोई देख तो नहींरहा और चुपचाप हाथ पर रखा मावा नजाकत से चोंच से उठाकर खाता था , , यहमूक प्राणी कोई भी हों स्नेह समझतें है और वफादारी भी निभातें है। ऐसे रोमांच जीवनपर्यन्त यादगार होतें है , मै हरजगह किसी न किसी मूक प्राणी से रिश्त बनाने का प्रयास जरूर करतीं हूँ।
Friday, April 10, 2015
आईना सत्य कहता है।
लघुकथा
आज आईने में जब खुद का अक्स देखा तो ज्ञात हुआ वक़्त कितना बदल गया है। जवां दमकते चहरे, काले बाल, दमकती त्वचा के स्थान पर श्वेत केश, अनुभव की उभरी लकीरें, उम्र की मार से कुछ ढीली होती त्वचा ने ले ली है, झुर्रियां अपने श्रम की कहानी बयां कर रही हैं। उम्र को धोखा देने वाली वस्तुओं पास मेज पर बैठी कह रही थी मुझे आजमा लो किन्तु मन आश्वस्त था इसीलिए इन्हे आजमाने का मन नहीं हुआ. चाहे लोग बूढ़ा बोले किन्तु आइना तो सत्य कहता है। मुझे आज भी आईने के दोनों और आत्मविश्वास से भरा, सुकून से लबरेज मुस्कुराता चेहरा ही नजर आ रहा है। उम्र बीती कहाँ है, वह तो आगे चलने के संकेत दे रही है। होसला अनुभव , आत्मविश्वास आज भी कदम बढ़ाने के लिए तैयार है।
शशि पुरवार
Wednesday, March 25, 2015
आदमी ने आदमी को चीर डाला है।
चापलूसों का
सदन में बोल बाला है
आदमी ने आदमी
को चीर डाला है
आँख से अँधे
यहाँ पर कान के कच्चे
चीख कर यूँ बोलतें, ज्यों
हों वही सच्चे.
राजगद्दी प्रेम का
चसका निराला है
रोज पकती है यहाँ
षड़यंत्र की खिचड़ी
गेंद पाले में गिरी या
दॉंव से पिछड़ी
वाद का परोसा गया
खट्टा रसाला है
आस खूटें बांधती है
देश की जनता
सत्य की आवाज को
कोई नहीं सुनता
देख अपना स्वार्थ
पगड़ी को उछाला है
आदमी ने आदमी को चीर डाला है
-- शशि पुरवार
Thursday, March 19, 2015
पहचान
वाह अपना लंगोटिया यार कितना बड़ा आदमी हो गया है, जानी मानी हस्ती है, अपने को कैसे भूल सकता है, जब उसके बुरे दिन थे तब कितनी मदद की थी। महाशय दम्भ में भरे हुए बचपन के सखा से मिलने गए, साथ में एक दो चम्मच को भी ले गए , थोड़ा रॉब तो झाड़ दिया जाए ……… अपनी तो गाडी निकल पड़ेगी।
पर वहां तो चमचों की लाइन लगी पड़ी थी, अब गुड की ढेली आ गयी है तो मक्खियाँ तो भिनभिनायेंगी।
ऐसे में इन महाशय को कौन पूछता, पर महाशय आज मिलने का विचार का साफा पहनकर ही बैठे थे।
बड़े बड़े कद वाले दोस्त आये, सबसे मिले फिर महाशय से कहा - कहो भाई कैसे आना हुआ, क्या काम है।
महाशय बड़े खुश---- अपने यार ने पहचान लिया। पीठ पर धौल मालकर गले लग गए --- यार केशु कैसा है?
पर यह क्या --- अरे अरे कौन हो भाई -- ये क्या कर रहे हो --- जरा सा मीठा क्या बोल लिया -- सर पर बैठे जा रहे हो।
" तुम मुझे नहीं पहचान रहे ,कैसे भूल सकते हो " महाशय अचकचा गए.
तुम जैसे लोग बेफ़्कूफ होतें है, जब काम था, अब काम ख़त्म , हमसे फ़ायदा उठाने की सोचना भी मत --- तुमने काम किया तो हमने भी तुम्हारा काम किया हिसाब ख़त्म। …।
कड़कती आवाज ने निर्देश दिया ---चौकीदार आगे से ध्यान रखना ऐसे लोग अंदर नहीं आने चाहिए।
चढ़ते सूरज को हर कोई सलाम करता है।
-- शशि पुरवार
Thursday, March 5, 2015
भंग दिखाए रंग - होली है
होरी आई री सखी ,दिनभर करे धमाल
हरा गुलाबी पीत रंग , बरसे नेह गुलाल .1
द्वारे पे गोरी खड़ी , पिया गए परदेश
नेह सिक्त पाती लिखी ,आओ पिया स्वदेश2
भेद भाव से दूर ये ,होरी का त्यौहार
डूबा जोशो जश्न में , यह सारा संसार 3
होरी के हुडदंग में , हुरियारों की जंग
मिल जाए जो सामने ,फेको उस पर रंग .4
अम्मा से बाबू कहे , खेलें होरी आज
कहा तुनक कर उम्र का , कुछ तो करो लिहाज .5
होरी की अठखेलियाँ , पकवानों में भंग
बिना बात किलकारियाँ , भंग दिखाए रंग 6
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कुण्डलियाँ
होली के हुडदंग में , हुरियारों की जंग
मिल जाए जो सामने, उस पर फेको रंग
फेको उस पर रंग , नीले पीले गुलाबी
घेरो सब चहुँ ओर, यह टोली है नबाबी
मस्ती का उन्माद , संग मित्रों के ठिठोली
जोश जश्न उल्लास , खेलो प्रेम की होली .
हाइकु -
१
होली है प्यारी
रंग भरी पिचकारी
सखियाँ न्यारी
२
मारे गुब्बारे
लाल पीले गुलाबी
रंग लगा रे
३
प्रेम की होली
दूर बैठी सखियाँ
मस्तानी टोली
४
होली की मस्ती
प्रेम का है खजाना
दिलों की बस्ती
५
चढ़ा के भंग
मौजमस्ती संग
बजाओ चंग
----- शशि पुरवार
आप सभी ब्लॉगर मित्रों को होली की हार्दिक रंग भरी शुभकामनाएँ
Monday, February 23, 2015
अब कहाँ जाएँ।
बाहर
की आवाजों
का शोर,
सड़क रौंदती
गाड़ियों की चीख
जैसे मन की पटरी पर
धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ी
और इन सब से बेचैन मन
शोर शराबे से दूर,
एक बंद कमरे में
छोड़ा मैंने बोझिल मन को ,
निढाल होते तन के साथ
नर्म बिस्तर की बाहों में
शांति से बात करने के लिए
पर अब पीछा कर रही थीं
श्वासोच्छवास की दीर्घ ध्वनि
धड़कनों की पदचाप
बंद पलकों में
चहलकदमी करने लगीं पुतलियाँ
उमड़ते हुए विचारों की भीड़
करने लगी कोलाहल
अंतर की हवा में ज्यादा प्रखर है प्रदुषण
खुद से भागते हुए
शांति की तलाश में अब कहाँ जाएँ।
सड़क रौंदती
गाड़ियों की चीख
जैसे मन की पटरी पर
धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ी
और इन सब से बेचैन मन
शोर शराबे से दूर,
एक बंद कमरे में
छोड़ा मैंने बोझिल मन को ,
निढाल होते तन के साथ
नर्म बिस्तर की बाहों में
शांति से बात करने के लिए
पर अब पीछा कर रही थीं
श्वासोच्छवास की दीर्घ ध्वनि
धड़कनों की पदचाप
बंद पलकों में
चहलकदमी करने लगीं पुतलियाँ
उमड़ते हुए विचारों की भीड़
करने लगी कोलाहल
अंतर की हवा में ज्यादा प्रखर है प्रदुषण
खुद से भागते हुए
शांति की तलाश में अब कहाँ जाएँ।
- शशि पुरवार
Monday, February 16, 2015
गम की हाला - नवगीत
होठों पर मुस्कान सजाकर
हमने, ग़म की
पी है हाला
ख्वाबों की बदली परिभाषा
जब अपनों को लड़ते देखा
लड़की होने का ग़म ,उनकी
आँखों में है पलते देखा
छोटे भ्राता के आने पर
फिर ममता का
छलका प्याला
रातों रात बना है छोटा
सबकी आँखों का तारा
झोली भर-भर मिली दुआये
भूल गया घर हमको सारा
छोटे के
लालन - पालन में
रंग भरे सपनो की माला
बेटे - बेटी के अंतर को
कई बार है हमने देखा
बिन मांगे,बेटा सब पाये
बेटी मांगे, तब है लेखा
आशाओं का
गला घोटकर
अधरों , लगा लिया है ताला
-- शशि पुरवार
Monday, February 9, 2015
रोजी रोटी की खातिर
रोजी रोटी की खातिर,फिर
चलने का दस्तूर निभाये
क्या छोड़े, क्या लेकर जाये
नयी दिशा में कदम बढ़ाये।
चिलक चिलक करता है मन
बंजारों का नहीं संगमन
दो पल शीतल छाँव मिली, तो
तेज धूप का हुआ आगमन
चिंता ज्वाला घेर रही है
किस कंबल से इसे बुझाये।
हेलमेल की बहती धारा
बना न, कोई सेतु पुराना
नये नये टीले पर पंछी
नित करते हैआना जाना
बंजारे कदमो से कह दो
बस्ती में अब दिल न लगाये।
क्या खोया है, क्या पाया है
समीकरण में उलझे रहते
जीवन बीजगणित का परचा
नितदिन प्रश्न बदलते रहते
अवरोधों के सारे कोष्टक
नियत समय पर खुलते जाये।
-- शशि पुरवार
Monday, February 2, 2015
मौसम ठिकाने आ गए
आ गए जी आ गए
मौसम ठिकाने आ गए
सूर्य ने बदला जो रस्ता
दिन सुहाने आ गए।
धुंध कुहरे की मिटाने
ताप छनकर आ रहा
खेत में बैठा बिजूखा
धुप से गरमा रहा
धूप की
अठखेलियों के
दिन पुराने आ गए।
प्रेम पाती बाँचकर, यह
स्वर्ण किरणें चूमती
इंद्रधनुषी रंग पहने
तितलियाँ भी झूमती
स्वप्न आँखों में
बसंती
दिल चुराने आ गए।
नींद से जागा शहर
टहलाव,
सड़कों पर मिला
सुगबुगाती टपरियोँँ पर
चुसकियों का सिलसिला
लॉन में फिर
चाय पीने
के बहाने आ गए।
बात करते खिलखिलाते
साथ जोड़े चल रहे
घाट पर गप्पें लड़ाते
कुछ समय को छल रहे
हाथ नन्हे डोर थामे
नभ रिझाने आ गए
--- शशि पुरवार
Monday, January 26, 2015
६६ गणत्रंत्र दिवस
आप सभी भारतीय मित्रों को ६६ वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ , जय हिन्द - जय भारत
सीना चौड़ा कर रहे ,वीर देश की शान
हर दिल चाहे वर्ग से ,करिए इनका मान
करिए इनका मान , हमें धरती माँ प्यारी
वैरी जाये हार , यह जननी है हमारी
दिल में जोश उमंग ,देश की खातिर जीना
युवा देश की शान ,कर रहे चौड़ा सीना .
- शशि पुरवार
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