Thursday, September 20, 2018

विकलांगता

विकलांगता ख्याल आते ही
 मन में सहानुभूति जन्म लेती है 
कहीं वितृष्णा, कहीं लापरवाही 
कहीं बेचारगी, कभी दुत्कार।
यह अपरिपक्व मन के विकार है  
शरीर या मन का विकृत अंग जिसे
काट नहीं सकतें, सहला सकतें है 
अपने नर्म हाथों से, प्रेम भरी बातों से।
जीवन की खूबसूरती पर
उनका भी हक है। 
विकलांगता,
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है। 
जो तन से परे मन को विक्षिप्त करता है।
जीवन लाचार नहीं, वरदान है। 
भीख मत मांगो जिंदगी से ,
लड़ो अपने मन  की अपंगता से।
बेचारगी तोड़ देगी सम्बल तुम्हारा 
पर मत लड़ो खुद से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से, 
गिर  पड़े गर अपनी नजर में तो 
 फिर कैसे उठोगे । 
 कुछ कर गुजरने की चाह गर  दिल में है 
तो छू लो आसमान को
पाँव तले होगी जमीं 
तुम्हारे मजबूत इरादों की, 
जीत लोगे जंग हालातों से 
विकलांगता अभिशाप नहीं है। अपितु
प्रेम की नरम छुअन बदल देगी
किसी एक का  जीवन

शशि पुरवार
 


Monday, September 17, 2018

हौसलों के गीत - गजल

जिंदगी अनमोल है नित, हौसलों के गीत गाना
हर कमी तन की भुलाकर, साथ जग के मुस्कुराना

जिस्म गर विकलांग है तो, तुम बदलना सोच अपनी
लिख सकोगे नव इबारत, भाग्य हाथों से बनाना

तन अपाहिज है नहीं मन, मर्ज को ताकत बनाओ
जग हँसे या मीत रूठे, पीर को मत गुनगुनाना

दर्द की मीठी लहर, जब,  देह मन को चीर देगी
टूटना मत, नित सँभलना, ख्वाब आँखों में सजाना 

राह पथरीली बहुत ही, हर कदम पर इंतिहाँ है 
समय के निष्ठुर पहर पर, दीप आशा के जलाना 

हर कमी तन की नहीं, मन की हमेशा सोच होती
नजरिया जग का बदलना, और खुल कर मुस्कुराना।

शशि पुरवार






Friday, September 7, 2018

जंगल में मंगल

इस साल दशहरा मैदान पर रावण जलाने की तैयारियां बड़े जोर शोर से की जा रहीं थी. पहले तो कई दिनों तक रामलीला होती थी फिर रावण दहन किया जाता था. अब काहे की राम लीला काहे का रावण, अब तो बस जगंल में मंगल है. राम भरोसे के भरोसे सारा रावण दहन हो जाता है. राम भरोसे नाम की ही नहीं काम का भी राम भरोसे है. पंडाल का काम हो या जनता की सेवा राम भरोसे के बिना पत्ता नहीं हिलता है. हर बार जेबें गर्म, मुख में पान का बीड़ा रहता था किन्तु इस बार जैसे उसके माई बाप आपस में गुथम गुथम कर रहें हैं.  बड़े बेमन  से वह रावण दहन के कार्य में हिस्सा ले रहे थे. मित्र सेवक राम से रहा नहीं गया बोले – भाई इतने ठन्डे क्यूँ हो क्या हुआ है .

अब का कहे देश में रावण राज्य ही चल रहा है. जिसे देखों, जब देखो हर पल गुटर गूं करते रहते हैं.

क्यूँ, भाई क्या हुआ.

अब पहले जैस बात कहाँ है, यह दशहरा पर मैदान बड़ा गुलजार रहता था, रामायण के पात्र समाज को अच्छा सन्देश देते थे. राम हजारो में थे तो रावण एक, कलयुग में राम ढूँढने से भी नहीं मिलते हैं. सबरे के सबरे रावण है. कल तक रामभरोसे थे अब सारा दूध पी लिया और रामभरोसे को राम के भरोसे ही छोड़ दिया.

हाँ भाई सच कहत हो, देखो राम जी तो चले गए लेकिन आज के रावण राम मंदिर के नाम पर आज भी अयोध्या जलाते हैं.
और नहीं तो का, जनता की कौन सोचत है  सभी अपना अपना चूल्हा जलाते है और अपनी अपनी रोटी सेकतें हैं. धुआं तो जनता की आँखों में धोका जात है.

इतने वर्ष हो गए हमने कोई जात पात नहीं मानी, सभी  धर्म के लिए ईमानदारी से काम किया, किन्तु अब कोई हमें पानी भी नहीं पिलाता है. आजकल काहे का रावण काहे की माफ़ी, प्रदुषण पर बैन है, तो जाने दो मन का रावण जला दे वही बहुत है.  ऐसे कलयुगी रावण का क्या किया जाये, गॉंव में काँव काँव शुरू रहती है..... शहर में धम्म धम्मा धम्म, ऐसी मौज मस्ती जैसे अपने घर के बगीचे में टहल रहें है और घर के बर्तन बाहर जाकर नगाड़ा बजाते है. ई दशहरा भी कोई राजनीती होगी. सब धर्म के नाम फरमान जारी होंगे, कुछ लाला अपना कन्धा सकेंगे. थोड़े बर्तन बजायेंगे और डाक्टर नयी फ़ौज को जमा करने  के लिए तैयार रहेंगे, लो जी हो गया दशहरा. फिर से राम ही रावण बनकर आपस में लड़ रहे हैं. तो जीतने वाला भी रावण ही होगा. बस हाल होगा तो बेचारे राम भरोसे का, जो राम के भरोसे ही पेट की आग शांत करने का प्रयास करता है और अब वह न घर का रहा है न घाट का. अब कलयुग है तो कलयुग के राम सूट बूट वाले है. वह अपनी सेना को नहीं खुद को ही ज्यादा देखते हैं. त्रेता युग में जो हो गया सो हो गया, आज वह के राम बने रावण वनवास जाते नही है, विभीषण को भेज देते हैं. आखिर वही ततो आया था उनके पास भोजन मांगने.

      अब कोई त्यौहार पहले जैसा नहीं रहा, घर में बैठकर दो चार घंटे टीवी देख लो. अभाशी दुनिया घूम लो, ट्विटर से जबाब तलब कर लो, हो गया दशहरा. फिर काहे इतना पैसा एक रावण को जलाने में लगायें, लाखो लोगों के पेट भर खाना खिला दे तो पुन्य तो मिलेगा, इस देश में न जाने कितने विभीषण अभी भी है जो त्रेता युग के राम भरोसे ही अपना धर्म निभा रहें हैं.
  शशि पुरवार


Tuesday, August 28, 2018

एक पहेली

१ 
सुबह सवेरे रोज जगाये
नयी ताजगी लेकर आये
दिन ढलते, शीतल रंग रूप
क्या सखि साजन ?
ना सखी  धूप 

साथ तुम्हारा सबसे प्यारा
दिल चाहे फिर मिलूँ दुबारा
हर पल बुझे  एक पहेली
क्या सखि साजन ?
नहीं सहेली। 
रोज,रात -दिन, साथ हमारा  
चाहे तुमको दिल बेचारा  
समय भगाता, मैं  वहीँ खड़ी 
क्या सखि साजन ?
ना सखी घडी। 
तुमसे ही संसार हमारा  
मिले नहीं तो दिल बेचारा
तुमको पाकर हुई धनवान  
क्या सखि साजन ?
ना सखी ज्ञान।
 ५

रोज सुबह चुपके से आना
हौले से फिर नींद उड़ाना
देख न पाती तुमको जी भर
क्या सखि साजन?
न सखी, दिनकर। 

बहुत दिनों में मिलने आया
जब आया तब मन हर्षाया
तन मन बरसा, पवित्र नेह
क्या सखि साजन ?
ना सखी मेह। 
दिनभर आँखें वह दिखलाए
तन मन उससे निज घबराए
रूप बिगाड़े, क्यों अचरज ?
क्या सखि साजन ?
न सखी सूरज। 

रातों को वह मिलने आए 
सोने ना दे, नींद उड़ाए 
बातें करते, बढे उन्माद
क्या सखि साजन 
ना सखी याद 
९ 
हर पल का है साथ हमारा 
बिना तुम्हारे नहीं गुजारा 
प्रिय दूर करे वह तन्हाई 
क्या सखि साजन ?
ना परछाई 
१० 
उजला प्यारा रूप तुम्हारा 
तुमको देखा दिल भी हारा 
पहना है उलफत का फंदा 
क्या सखि साजन ?
न सखी चंदा 
शशि पुरवार 



Friday, August 24, 2018

जीवन अनमोल

पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल
लेकिन राहों में बिखरें है
खट्टे मीठे बोल 

पथरीली पगडंडी का, ना 
कोई  ठौर ठिकाना
मंजिल दूर भले हो लेकिन
सफर नया अनजाना
श्रम करने का एक दिन, हमको 
मिल जायेगा मोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल 

सावन भादों बीत गए, फिर
पतझड़ इक दिन आया
मन के पीले पत्तों ने, नित   
पथ में भी भरमाया
नहीं हारना, चलते रहना
रचना नव भूगोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल

दीपक की बाती सा जलकर 
निश्चित इक दिन  जाना 
लेकिन जाने  से पहले
जीवन बना सुहाना
हँसकर तूफानों से लड़ना
सुख- दुख मन के झोल 
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल 

शशि पुरवार 

चित्र गूगल से साभार

Friday, August 10, 2018

अधरों पर मुस्कान

बरखा रानी दे रही, अधरों पर मुस्कान
धान बुआई  कर रहे, हर्षित भये किसान
हर्षित भये किसान, जगी मन में फिर आशा
पनपता हरित स्वर्ण, पलायन करे निराशा
कहती शशि यह सत्य, हुआ मौसम नूरानी 
खिले खेत  खलियान, बरसती बरखा रानी  

बीड़ी,गुटका,तमाखू ,गांजा, मदिरापान 
नष्ट हो गयी जिंदगी, पहुँच गयी शमशान 
पहुँच गयी शमशान, फना जीवन की लीला 
करा ना कोई काम, नशीला द्रव्य ही लीला 
कहती शशि यह सत्य, कर्म में तन मन अटका
पाया तभी मुकाम, नशा है बीड़ी, गुटका   

शशि पुरवार 

 


Thursday, August 9, 2018

व्यंग्य की घुड़दौड़ संग्रह




व्यंग्य की घुड़दौड़’ सीधे शब्दों में ज़िन्दगी की घुड़दौड़ है। ठीक उसी तरह, जैसे बेतरतीब सड़कों पर थमे बिना चलते रहना, कड़कते तेल के छौंक की खुशबू का चिमनी में सिमटना, प्रेम की सौंधी खुशबू का जीवन से प्रस्थान करना, जिंदगी की आसमान को छूने की दौड़ या इक दूजे से आगे निकलने की होड़ में ख़ुद को भूल जाना, उड़ने की ख़्वाहिश में गुदगुदाते पलों का बिखरना, जीवन से कहकहों का रूठ कर सिमटना, एक अंतहीन प्यास की चाहत में ख़ुद से बेरुखी करना या समय के इस चक्र में खुद को मूर्ख बनाना, खुशफहमी का जामा पहनना, जिसका अहसास हमें ही स्वयं भी नहीं होता है, खुद को धोखा देकर आभासी पलों को जीना, ज़िन्दगी के हर, पल समय को हराने के लिए भागना। कहीं कुछ छूट रहा है कहीं दिल टूट रहा है। समय के पलटते पन्नों ने वर्तमान में जीवन की तस्वीर को बदल दिया है। सोशल मीडिया ने जहाँ दुनिया को आपस में जोड़ा है, वहीं जिंदादिली को मार कर अकेलेपन को भी जोड़ा है। कहीं हम अवसाद के घेरे में न आ जाएँ, आओ चलो कहकहों को चुराएँ। परिवेश से बिखरी हुई संवेदनाओं को समेटकर उसमें व्यंग्य का हल्का सा छौंक लगा दें। संजीदगी को फिर से ज़िन्दगी की घुड़दौड़ बना दें। आपके प्यार को हम अपना सिरमौर बना लें। व्यंग्य की घुड़दौड़ को अपने दिल से लगा लें।
शशि पुरवार 

Wednesday, July 11, 2018

सुख की क्यारी


भारी सिर पर बोझ है, ना उखड़ी है श्वास
राहें पथरीली मगर, जीने में विश्वास 
जीने में विश्वास, सधे क़दमों से चलना 
अधरों पर मुस्कान, न मुख पर दुर्दिन मलना 
कहती शशि यह सत्य, तोष है सुख की क्यारी 
नहीं सालता रोग, काम हो कितने भारी 


जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास
ठहर गया मधुमास, गजब का दिल सौदागर
बूँद बूँद भरने लगाप्रेम अमरत्व की गागर
कहती शशि यह सत्य, उधेड़ों मन की सीवन
भरो सुहाने रंग, मिला है सुन्दर जीवन

शशि पुरवार 

Friday, July 6, 2018

गीतों में बहना

 कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ  तनहा रहना। 


तन्हाई में भीतर का
सन्नाटा भी बोले
कथ्य वही जो बंद ह्रदय के
दरवाजे खोले। 


अनुभूति के,अतल जलधि को
शब्द - शब्द  कहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ  तनहा रहना। 


बंद पलक में अहसासों के
रंग  बहुत बिखरे
शीशे जैसा शिल्प तराशा
बिम्ब तभी निखरे।


प्रबल वेग से भाव उड़ें जब
गीतों में बहना।
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ  तनहा रहना। 


गहन विचारों में आती, जब
भी कठिन हताशा
मन मंदिर में दिया जलाती
पथ की परिभाषा


तन -मन को रोमांचित करती
सुधियों को गहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ  तनहा रहना।
           -- शशि पुरवार

Saturday, June 16, 2018

बच्चों वाले खेल

उत्सव की वह सौंधी खुशबू 
ना अंगूरी बेल 
गली मुहल्ले भूल गए हैं 
बच्चों वाले खेल 

लट्टू, कंचे, चंग, लगौरी 
बीते कल के रंग 
बचपन कैद हुआ कमरों में 
मोबाइल के संग 

बंद पड़ी है अब बगिया में 
छुक छुक वाली रेल 
गली मुहल्ले भूल गए हैं 
बच्चों वाले खेल. 

बारिश का मौसम है, दिल में 
आता बहुत उछाव 
लेकिन बच्चे नहीं चलाते 
अब कागज की नाव 

अंबिया लटक रही पेड़ों पर 
चलती नहीं गुलेल 
गली मुहल्ले भूल गए हैं 
बच्चों वाले खेल. 

दादा - दादी, नाना - नानी
बदल गए हालात 
राजा - रानी, परी कहानी 
नहीं सुनाती रात 

छत पर तारों की गिनती 
सपनों ने कसी नकेल 
गली मुहल्ले भूल गए हैं 
बच्चों वाले खेल.
शशि पुरवार 
चित्र गूगल से साभार 

Monday, June 11, 2018

हीरे सा प्रतिमान


उमर सलोनी चुलबुली, सपन चढ़े परवान
आलोकित शीशा लगे, हीरे सा प्रतिमान1 

एक सुहानी शाम का, दिलकश हो अंदाज
मौन थिरकता ही रहे , हृदय बने कविराज2 

मन के रेगिस्तान में, भटक रही है प्यास
अंगारों की सेज पर, जीने का अभ्यास3 

निखर गया है धूप में, झरा फूल कचनार
गुलमोहर की छाँव में, पनप रहा है प्यार4 

कुर्सी पर बैठे हुए, खुद को समझे दूत
संकट छाया देश पर, ऐसे पूत कपूत5 

पाप पुण्य का खेल है, कर्मों का आव्हान
पाखंडी के जाल में , मत फँसना इंसान6 

झूम रही है डालियाँ, बूॅंद करे उत्पात
बरखा रानी आ गई, भीगे तन मन पात 7

आॅंगन में बरगद नहीं, ना शहरों से गाॅंव
ना चौपाले नेह की, घड़ियाली है छाॅंव 8 

चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान 9 


शशि पुरवार 

Monday, June 4, 2018

टेढी हुई जुबान


भोर हुई मन बावरा, सुन पंछी का गान
गंध पत्र बाँटे पवन, धूप रचे प्रतिमान 
 

पानी जैसा हो गया, संबंधो में खून
धड़कन पर लिखने लगे, स्वारथ का कानून 
 

आशा सुख की रागिनी, जीवन की शमशीर
गम की चादर तान कर, फिर सोती है पीर


सोने जैसी जिंदगी, हीरे सी मुस्कान
तपकर ही मिलता यहाँ, खुशियों का बागान
 

जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास 
 

सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज


सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज


उपकरणों का ढेर है, सुविधा का सामान
धरती बंजर हो रही, मिटे खेत खलियान


फिसल गई ज्यों शब्द से, टेढी हुई जुबान
अपना ही घर फूंकते,विवादित से बयान


मन भी गुलमोहर हुआ, प्रेम रंग गुलजार
ह्रदय वसंती मद भरा ,गीत झरे कचनार 
 

समय लिख रहा माथ पर,उमर फेंटती ताश
तन धरती पर रम रहा, मन चाहे आकाश


संवादों में हो रहा, शब्दों से आघात
हरा रंग वह प्रेम का, झरते पीले पात

शशि पुरवार  

Monday, May 14, 2018

विचारों में मिलावट

वक़्त बदल गया है। विचारों में भी मिलावट हो रही है।  साहित्य व व्यंग्य भी खालिस नहीं रहा। हर तरफ मिलावट ही मिलावट है।  मिलावट कहाँ नहीं है ... विचार, साहित्य,व्यंग्य, राजनीति विज्ञान ,संचार माध्यम  ..... ऐसा कोई क्षेत्र शेष नहीं है जो मिलावट से ग्रस्त न हो। अब आप सोचेंगे इनमे  मिलावट कैसे हो सकती है।  दूषित विचार अपना प्रभाव दिखातें ही है।  हर कोई अपनी काली कामना पूर्ति में लगा हुआ है। यौन पिपासा, कामुक विचार हमारे तथाकथित खुलेपन और पोर्न तस्वीरों की देन हैं। भोजन अशुद्ध होगा तो विचार भी अशुद्ध आएंगे। शाकाहारी छोड़ माँसाहार का सेवन आखिर पशु के हार्मोन आप अपने शरीर में डाल रहें है। दिमाग भी पशु की तरह इधर उधर मुँह मारेगा ही। पशु व इंसान में फर्क ही कहाँ बचा।  प्रकृति में जो है उसे नष्ट करना मानव ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार बना लिया है। मानवी अंग भी कृतिम बनाकर लगाए जाते है।  वास्तविकता कहाँ शेष है।
  
             मिलावट का दायरा बढ़ने लगा है।  दुष्कर्म, क्राइम, चालबाजी इतनी बढ़ गयी है कि किसी सच्चे इंसान को भी हम अपनी मिलावटी नजर से देखने लगे हैं। वैसे आज के समय सच्चा इंसान भी दूरबीन लेकर खोजना होगा।  घर के बड़े बुजुर्ग हो या अपना - पराया।  हर कोई आँखों में खटक रहा है।  मीडिया भी वही परोस रही है, जो न सीखें हो वह भी देखकर सीख जाएँ। समाज को दिमागी फितूर की आदत इस मिलावटी दुनियां ने डाली है.  मिलावट ने इतना प्रचंड रूप  धारण किया है कि हमें हर व्यक्ति मिलावटी लगने लगा है। दुष्कर्मी कृत्य करके उसे धर्म का जामा पहनाने का प्रयत्न करता है।  अब महिला और पुरुष  धर्मानुसार शारीरिक बनावट पृथक कैसे हुई, यह गुत्थी समझ नहीं आयी। धर्मानुसार नाक कान अलग अलग होते हैं ?  यह उनकी जगह बदल जाती है। यह सुनने के बाद मन में विचार आया कि धर्म के अनुसार शरीर का अध्यन भी किया जाये।  
        
         आज मन में ख्याल आया कि कभी एक समय था जब हम विशुद्ध खाद्य सामग्री का उपयोग करते थे। हर तरफ खुशहाली थी।  लहलहाती फसलों  के साथ लहलहाते रिश्ते भी थे। सुविधा के साधन कम थे किन्तु मन को सुकून ज्यादा था।  पुरानी पीढ़ी ने हमें विश्वास, सुरक्षा और  अपनत्व प्रदान किया किन्तु न जाने कहाँ चूक हो गयी।  इंसान ज्यादा चतुर हो गया। अनाज व धान्यों में कंकर मिलाना शौक बन गया। दूध में पानी मिलाने लगे. धीरे धीरे कमोवेश सभी खाद्य सामग्री मिलावट के घेरे में आ गयी।  आज पानी में  दूध मिलातें हैं।  हद तो तब हो गयी जब पानी में रंग शक्कर मिला कर दूध ही बना लिया। दूध में झाग बनाने के लिए रासायिनक पाउडर मिलाने लगे।  किसी की जान जाये फर्क नहीं, माल हाथ आये की तर्ज शुरू हो गयी।  

        सामग्री में मिलावट की बात विचारों में जन्मी थी तो सौ प्रतिशत सारा झोल विचारों में ही था। फल सब्जियों में रसायन - रंग की मिलावट तो गाय - भैंस को इंजेक्शन लगाकर उनका ही जीवन रस निचोड़ रहें है। लालच ने अँधा कर दिया था।  

शर्मनाक है कि आज  रिश्तों को भय व असुरक्षा की भावना से ग्रसित करके तार तार कर दिया है। दूषित मानसिकता के कारण  भय के बादल मँडराते रहतें है। बच्चे बचपना भूल गए हैं।  कभी माटी में खेलने वाले बच्चे आज  पैदा होते ही मोबाइल से खेलते हैं।  माटी की खुशबु की जगह तरंगो की मिलावटी  खुशबु दिमाग में रस बस जाती है। बचपन सलोनापन छोड़कर जल्दी युवा बन जाता है।  दिमागी रसायन में परिवर्तन हमारी मिलावटी वस्तुओं का ही असर है।  दिमाग में भी रसायन मिलावटी कर रहे हैं। पल में खुश व पल में खूंखार।  जाने कैसे कैसे फितूर दिमाग को व्यस्त करके तरक्की का जामा पहनाने में लगे हुए हैं। 

               हर कोई चारो तरफ से चादर खींचने में लगा हुआ है। चादर तो किसी के हाथ आती नहीं  है अपितु फट जरूर जाती है।  कमोवेश यही हाल व्यंग्य व साहित्य जगत को भी अपनी लाग लपेट में ले चुका है।  साहित्य में मिलावट सुनने में बहुत अजीब लगता है।  किन्तु सत्य है जब से सोशल मीडिया आया है विचारों का मिलावटी रायता फैलने लगा है। हर कोई उस रायते को चटकारे लेकर खा रहा है।  बची कुछ नमक मिर्च डालकर उसे चटपटा बनाने का कार्य दिमागी फितूर कर ही देते हैं। 

जहाँ मिलावट के कई नमूने गुणधर्म के साथ मौजूद है। यदि कोई व्यक्ति चाहे तो यहाँ दिमागी फितरतों की पी एच डी कर सकता है। कई विशुद्ध साहित्यकारों की रचनाएँ  चोरी करके, चोर भी अशुद्ध  साहित्यकार बनकर वाह वाही  लूट रहें हैं।  विचारों को चुराकर मिलावट के साथ परोस दिया जाता है।  असली नकली का भेद करना मुश्किल हो गया है। गीत - नवगीत - नयी कविता वाले अपनी अपनी चादर खींचने में लगे है।  मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है।  छंद में गद्य घुसने लगा है। व्यंग्य में सपाटबयानी आने लगी है।  संगीत में भी मिलावटी  हो रही है। सभी मिलावट को मॉर्डन कपड़ों का जामा पहनकर हाथों को सेका जा रहा है।  संगीत की मधुरता में भौंडेपन व कर्कश शोरों का मिश्रण हो गया है।  आज इन चोरो 
की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि पहचानना मुश्किल है सच्चा कौन।  इसका रायता फैलाने में सोशल मीडिया  महामहिम बनकर उभरी है।  जो लोगों को एडा बनाकर पेड़ा खा रही है। वित्त करेंसी  भी मिलावट से परहेज नहीं कर सकी. जब नए नोट चलन में आये तो वह  हाथों को रँगने लगे। सोना - हीरा भी मिलावट हो गया है।  आज नकली  चमक ही असली लगती है। 
     
           एक बार की बात है हम बस में सफर कर रहें है।  एक भद्र महिला सोने के आभूषण पहने थी। चलती बस में एक गुंडा हाथ में चाकू लेकर खड़ा हो गया।  उस भद्र महिला से बोला -  गहने दे वर्ना मार दूँगा।  ऐसा कहकर गहने छीनने का प्रयत्न करने लगा।  यह सब कांड देखकर मन में भय उत्पन्न हुआ।  हम हमारी सोने की चेन सँभालने का प्रयत्न करने लगे।  तभी उस महिला ने कहा  अरे भाई रुको -- ४० रूपए की चीज के लिए क्यों मेरे प्राण ले रहे हो।  सब गहने उतारकर दे दिए।  बेचारा गुंडा पोपट जैसा हो गया।  मिलावट किसी की जान भी बचा सकती है देखकर तसल्ली हुई। बाद में महिला से ज्ञात हुआ २ नकली था एक असली किन्तु सब वापिस मिल गया। नकली में भी दम हैं। असल नक़ल को पहचाना मुश्किल होता है। पहले राजशाही लोग सोना हीरा पहनते थे , आज सोना हीरा भी मिलावट बन गया है।  जिसे हर कोई पहनता है. अब अंतर करना मुश्किल है कौन अमीर कौन गरीब। इस मिलावट ने ऊँच - नीच का भेद जरूर  समाप्त कर दिया है। 

        गहनों तक तो ठीक था।  कुछ भी पहनों चोरी का डर नहीं।  वैसे भी कारोबारी कौन सा असली बेच रहें है। हम भी खुद हो बेबकूफ बनाते हैं। मापदंड बदलने लगे हैं।  धर्म - जाति प्रदेश - राष्ट्र हर जगह कुर्सी भी मिलावट का कारोबार करने लगी है।नेता अपनी कुर्सी देखकर कुर्सी धर्म ऐसे बदलते हैं जैसे कपडे बदल रहें हों। अब तो हमें भी लगने लगा कि  हमारे विचारों में भी मिलावट होने लगी है।गीत लिखने  बैठो  गजल बन जाती है। गद्य लिखने बैठो पद्य बनने लगा।  व्यंग्य 
लिखों तो व्यंग्य में मिश्रण के कारन चरमोत्कर्ष नहीं होता है। विचारों में ताजगी लाने के लिए अब हमने घर में ही खेती शुरू कर दी है , विशुद्ध भोजन करके हार्मोन की मिलवाट का प्रभाव कुछ कम हो सकेरायता बनाने वाले बैठे थे किन्तु खिचड़ी बन गयी। देश समाज में फैले हुए कंकर आँखों में चुभने लगे हैं। कलम की स्याही में मिलावट  के कारण कलम भी अवरुद्ध हो जाती है। भाई आज जैसा भी कलम का स्यापा भोजन है खाकर हमें माफ़ जरूर करना।  कल एक दुकान दिखी हैसच कहूं उसके सपने भी अब सोने नहीं देतेदबंद मिलावट।  गली नंबर चोरखेचरी बाजारयहाँ सर्वप्रकार का विशुद्ध मिलावटी सामान मौजूद हैपन्नू काका पंसारी वाले। वाकई दुनिया  तरक्की पर है।  
शशि पुरवार 

 
 जनसंदेश टाइम्स लखनऊ समाचार पत्र के प्रकाशित व्यंग्य - दिनांक - १३ /०५ /२०१८ 


Friday, May 11, 2018

दोहे - बेबस हुआ सुकून

जंगल कटते ही रहे, सूख गए तालाब 
बंजर होते खेत में, ठूँठ खड़े सैलाब 

जीवन यह अनमोल है, भरो प्रेम का रंग
छोटे छोटे पल यहाँ, बिखरे मोती चंग 

हरी भरी सी वाटिका, है जीवन की शान 
बंद हथेली खुल गई, पल में ढहा मकान 

कतरा कतरा बह रहा, इन आँखों से खून 
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून 

बेगैरत होने लगे, कलयुग के इंसान 
लालच का व्यापार है, स्वाहा होती जान 

रात रात भर झर रहे, कोमल हरसिंगार 
मदमाती सी चाँदनी, धरती का श्रृंगार 

आकुलता उर में हुई, मन में फिर कुहराम 
ताना बाना बुन दिया, दुर्बलता के नाम 

राहों  में मिलते रहे, अभिलाषा के वृक्ष 
डाली से कटकर मिला अवसादों का कक्ष 

सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज 
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज 

शशि पुरवार 





Monday, May 7, 2018

आँगन की धूप

धूप आंगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
हो रही नींव जर्जर
धूर में लिपटी हवेली

शहर की तीखी चुभन में 
नेह का आँगन नहीं है
गूँजती किलकारियों का
फूल सा बचपन नहीं है

शुष्क होते पात सारे
बन रहें है इक पहेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली

छोड़ आये गॉँव में हम
कहकहों के दिन सुहाने
गर्म शामें तप रही हैं
बंद कमरों के मुहाने

रेशमी अहसास सारे
झर गए चंपा चमेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली

गर्मियों में ढूँढ़ते हैं
वृक्ष की परछाईयों को
पत्थरों पर लिख गयी, उन
प्रेम की रुबाइयों को

मौन क्यों संवाद सारे
सिर्फ माँ है इक सहेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
शशि पुरवार









समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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