ब्लॉग सपने - जीवन के रंग अभिव्यक्ति के साथ, प्रेरक लेख , कहानियाँ , गीत, गजल , दोहे , छंद

Saturday, October 20, 2018

दर्द तीखे हँस रहे

खेल है यह जिंदगी के 
टूटना मुझको नहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे  
हौसला भी कुछ वहीं है 

क्यों परीक्षा ले रहा रब 
हर कदम पर इम्तिहां है 
तोड़ती निष्ठुर हवाएं 
पास साहिल भी कहाँ है 

दूर तक जाना मुझे, पर 
रास्ता दुर्गम मही है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है 

बेबसी मुझको सताती 
नाँव पथ में डगमगाती 
पंख मेरे कट रहें हैं 
जिंदगी भी लड़खड़ाती 

शूल पाँवों में चुभें, फिर 
नित संभलना भी यहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है 

शब्द मन में उड़ रहें है 
भाव हिय में फँस रहें है 
तन शिथिल कैसे चलूँ मै 
दर्द तीखे हँस रहें है 

क्या खता मेरी बता दे 
बात दिल की अनकहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे 
हौसला भी कुछ वहीं है

खेल है यह जिंदगी के 
टूटना मुझको नहीं है 
बंद हों जब द्वार सारे  

हौसला भी कुछ वहीं है

शशि पुरवार 
२० / ११/ २१०८ 



Thursday, September 20, 2018

विकलांगता

विकलांगता ख्याल आते ही
 मन में सहानुभूति जन्म लेती है 
कहीं वितृष्णा, कहीं लापरवाही 
कहीं बेचारगी, कभी दुत्कार।
यह अपरिपक्व मन के विकार है  
शरीर या मन का विकृत अंग जिसे
काट नहीं सकतें, सहला सकतें है 
अपने नर्म हाथों से, प्रेम भरी बातों से।
जीवन की खूबसूरती पर
उनका भी हक है। 
विकलांगता,
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है। 
जो तन से परे मन को विक्षिप्त करता है।
जीवन लाचार नहीं, वरदान है। 
भीख मत मांगो जिंदगी से ,
लड़ो अपने मन  की अपंगता से।
बेचारगी तोड़ देगी सम्बल तुम्हारा 
पर मत लड़ो खुद से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से, 
गिर  पड़े गर अपनी नजर में तो 
 फिर कैसे उठोगे । 
 कुछ कर गुजरने की चाह गर  दिल में है 
तो छू लो आसमान को
पाँव तले होगी जमीं 
तुम्हारे मजबूत इरादों की, 
जीत लोगे जंग हालातों से 
विकलांगता अभिशाप नहीं है। अपितु
प्रेम की नरम छुअन बदल देगी
किसी एक का  जीवन

शशि पुरवार
 


Monday, September 17, 2018

हौसलों के गीत - गजल

जिंदगी अनमोल है नित, हौसलों के गीत गाना
हर कमी तन की भुलाकर, साथ जग के मुस्कुराना

जिस्म गर विकलांग है तो, तुम बदलना सोच अपनी
लिख सकोगे नव इबारत, भाग्य हाथों से बनाना

तन अपाहिज है नहीं मन, मर्ज को ताकत बनाओ
जग हँसे या मीत रूठे, पीर को मत गुनगुनाना

दर्द की मीठी लहर, जब,  देह मन को चीर देगी
टूटना मत, नित सँभलना, ख्वाब आँखों में सजाना 

राह पथरीली बहुत ही, हर कदम पर इंतिहाँ है 
समय के निष्ठुर पहर पर, दीप आशा के जलाना 

हर कमी तन की नहीं, मन की हमेशा सोच होती
नजरिया जग का बदलना, और खुल कर मुस्कुराना।

शशि पुरवार






Tuesday, August 28, 2018

एक पहेली

१ 
सुबह सवेरे रोज जगाये
नयी ताजगी लेकर आये
दिन ढलते, शीतल रंग रूप
क्या सखि साजन ?
ना सखी  धूप 

साथ तुम्हारा सबसे प्यारा
दिल चाहे फिर मिलूँ दुबारा
हर पल बुझे  एक पहेली
क्या सखि साजन ?
नहीं सहेली। 
रोज,रात -दिन, साथ हमारा  
चाहे तुमको दिल बेचारा  
समय भगाता, मैं  वहीँ खड़ी 
क्या सखि साजन ?
ना सखी घडी। 
तुमसे ही संसार हमारा  
मिले नहीं तो दिल बेचारा
तुमको पाकर हुई धनवान  
क्या सखि साजन ?
ना सखी ज्ञान।
 ५

रोज सुबह चुपके से आना
हौले से फिर नींद उड़ाना
देख न पाती तुमको जी भर
क्या सखि साजन?
न सखी, दिनकर। 

बहुत दिनों में मिलने आया
जब आया तब मन हर्षाया
तन मन बरसा, पवित्र नेह
क्या सखि साजन ?
ना सखी मेह। 
दिनभर आँखें वह दिखलाए
तन मन उससे निज घबराए
रूप बिगाड़े, क्यों अचरज ?
क्या सखि साजन ?
न सखी सूरज। 

रातों को वह मिलने आए 
सोने ना दे, नींद उड़ाए 
बातें करते, बढे उन्माद
क्या सखि साजन 
ना सखी याद 
९ 
हर पल का है साथ हमारा 
बिना तुम्हारे नहीं गुजारा 
प्रिय दूर करे वह तन्हाई 
क्या सखि साजन ?
ना परछाई 
१० 
उजला प्यारा रूप तुम्हारा 
तुमको देखा दिल भी हारा 
पहना है उलफत का फंदा 
क्या सखि साजन ?
न सखी चंदा 
शशि पुरवार 



Friday, August 24, 2018

जीवन अनमोल

पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल
लेकिन राहों में बिखरें है
खट्टे मीठे बोल 

पथरीली पगडंडी का, ना 
कोई  ठौर ठिकाना
मंजिल दूर भले हो लेकिन
सफर नया अनजाना
श्रम करने का एक दिन, हमको 
मिल जायेगा मोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल 

सावन भादों बीत गए, फिर
पतझड़ इक दिन आया
मन के पीले पत्तों ने, नित   
पथ में भी भरमाया
नहीं हारना, चलते रहना
रचना नव भूगोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल

दीपक की बाती सा जलकर 
निश्चित इक दिन  जाना 
लेकिन जाने  से पहले
जीवन बना सुहाना
हँसकर तूफानों से लड़ना
सुख- दुख मन के झोल 
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल 

शशि पुरवार 

चित्र गूगल से साभार

Friday, August 10, 2018

अधरों पर मुस्कान

बरखा रानी दे रही, अधरों पर मुस्कान
धान बुआई  कर रहे, हर्षित भये किसान
हर्षित भये किसान, जगी मन में फिर आशा
पनपता हरित स्वर्ण, पलायन करे निराशा
कहती शशि यह सत्य, हुआ मौसम नूरानी 
खिले खेत  खलियान, बरसती बरखा रानी  

बीड़ी,गुटका,तमाखू ,गांजा, मदिरापान 
नष्ट हो गयी जिंदगी, पहुँच गयी शमशान 
पहुँच गयी शमशान, फना जीवन की लीला 
करा ना कोई काम, नशीला द्रव्य ही लीला 
कहती शशि यह सत्य, कर्म में तन मन अटका
पाया तभी मुकाम, नशा है बीड़ी, गुटका   

शशि पुरवार 

 


Thursday, August 9, 2018

व्यंग्य की घुड़दौड़ संग्रह




व्यंग्य की घुड़दौड़’ सीधे शब्दों में ज़िन्दगी की घुड़दौड़ है। ठीक उसी तरह, जैसे बेतरतीब सड़कों पर थमे बिना चलते रहना, कड़कते तेल के छौंक की खुशबू का चिमनी में सिमटना, प्रेम की सौंधी खुशबू का जीवन से प्रस्थान करना, जिंदगी की आसमान को छूने की दौड़ या इक दूजे से आगे निकलने की होड़ में ख़ुद को भूल जाना, उड़ने की ख़्वाहिश में गुदगुदाते पलों का बिखरना, जीवन से कहकहों का रूठ कर सिमटना, एक अंतहीन प्यास की चाहत में ख़ुद से बेरुखी करना या समय के इस चक्र में खुद को मूर्ख बनाना, खुशफहमी का जामा पहनना, जिसका अहसास हमें ही स्वयं भी नहीं होता है, खुद को धोखा देकर आभासी पलों को जीना, ज़िन्दगी के हर, पल समय को हराने के लिए भागना। कहीं कुछ छूट रहा है कहीं दिल टूट रहा है। समय के पलटते पन्नों ने वर्तमान में जीवन की तस्वीर को बदल दिया है। सोशल मीडिया ने जहाँ दुनिया को आपस में जोड़ा है, वहीं जिंदादिली को मार कर अकेलेपन को भी जोड़ा है। कहीं हम अवसाद के घेरे में न आ जाएँ, आओ चलो कहकहों को चुराएँ। परिवेश से बिखरी हुई संवेदनाओं को समेटकर उसमें व्यंग्य का हल्का सा छौंक लगा दें। संजीदगी को फिर से ज़िन्दगी की घुड़दौड़ बना दें। आपके प्यार को हम अपना सिरमौर बना लें। व्यंग्य की घुड़दौड़ को अपने दिल से लगा लें।
शशि पुरवार 

Wednesday, July 11, 2018

सुख की क्यारी


भारी सिर पर बोझ है, ना उखड़ी है श्वास
राहें पथरीली मगर, जीने में विश्वास 
जीने में विश्वास, सधे क़दमों से चलना 
अधरों पर मुस्कान, न मुख पर दुर्दिन मलना 
कहती शशि यह सत्य, तोष है सुख की क्यारी 
नहीं सालता रोग, काम हो कितने भारी 


जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास
ठहर गया मधुमास, गजब का दिल सौदागर
बूँद बूँद भरने लगाप्रेम अमरत्व की गागर
कहती शशि यह सत्य, उधेड़ों मन की सीवन
भरो सुहाने रंग, मिला है सुन्दर जीवन

शशि पुरवार 

Friday, July 6, 2018

गीतों में बहना

 कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ  तनहा रहना। 


तन्हाई में भीतर का
सन्नाटा भी बोले
कथ्य वही जो बंद ह्रदय के
दरवाजे खोले। 


अनुभूति के,अतल जलधि को
शब्द - शब्द  कहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ  तनहा रहना। 


बंद पलक में अहसासों के
रंग  बहुत बिखरे
शीशे जैसा शिल्प तराशा
बिम्ब तभी निखरे।


प्रबल वेग से भाव उड़ें जब
गीतों में बहना।
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ  तनहा रहना। 


गहन विचारों में आती, जब
भी कठिन हताशा
मन मंदिर में दिया जलाती
पथ की परिभाषा


तन -मन को रोमांचित करती
सुधियों को गहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ  तनहा रहना।
           -- शशि पुरवार

Saturday, June 16, 2018

बच्चों वाले खेल

उत्सव की वह सौंधी खुशबू 
ना अंगूरी बेल 
गली मुहल्ले भूल गए हैं 
बच्चों वाले खेल 

लट्टू, कंचे, चंग, लगौरी 
बीते कल के रंग 
बचपन कैद हुआ कमरों में 
मोबाइल के संग 

बंद पड़ी है अब बगिया में 
छुक छुक वाली रेल 
गली मुहल्ले भूल गए हैं 
बच्चों वाले खेल. 

बारिश का मौसम है, दिल में 
आता बहुत उछाव 
लेकिन बच्चे नहीं चलाते 
अब कागज की नाव 

अंबिया लटक रही पेड़ों पर 
चलती नहीं गुलेल 
गली मुहल्ले भूल गए हैं 
बच्चों वाले खेल. 

दादा - दादी, नाना - नानी
बदल गए हालात 
राजा - रानी, परी कहानी 
नहीं सुनाती रात 

छत पर तारों की गिनती 
सपनों ने कसी नकेल 
गली मुहल्ले भूल गए हैं 
बच्चों वाले खेल.
शशि पुरवार 
चित्र गूगल से साभार 

Monday, June 11, 2018

हीरे सा प्रतिमान


उमर सलोनी चुलबुली, सपन चढ़े परवान
आलोकित शीशा लगे, हीरे सा प्रतिमान1 

एक सुहानी शाम का, दिलकश हो अंदाज
मौन थिरकता ही रहे , हृदय बने कविराज2 

मन के रेगिस्तान में, भटक रही है प्यास
अंगारों की सेज पर, जीने का अभ्यास3 

निखर गया है धूप में, झरा फूल कचनार
गुलमोहर की छाँव में, पनप रहा है प्यार4 

कुर्सी पर बैठे हुए, खुद को समझे दूत
संकट छाया देश पर, ऐसे पूत कपूत5 

पाप पुण्य का खेल है, कर्मों का आव्हान
पाखंडी के जाल में , मत फँसना इंसान6 

झूम रही है डालियाँ, बूॅंद करे उत्पात
बरखा रानी आ गई, भीगे तन मन पात 7

आॅंगन में बरगद नहीं, ना शहरों से गाॅंव
ना चौपाले नेह की, घड़ियाली है छाॅंव 8 

चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान 9 


शशि पुरवार 

Monday, June 4, 2018

टेढी हुई जुबान


भोर हुई मन बावरा, सुन पंछी का गान
गंध पत्र बाँटे पवन, धूप रचे प्रतिमान 
 

पानी जैसा हो गया, संबंधो में खून
धड़कन पर लिखने लगे, स्वारथ का कानून 
 

आशा सुख की रागिनी, जीवन की शमशीर
गम की चादर तान कर, फिर सोती है पीर


सोने जैसी जिंदगी, हीरे सी मुस्कान
तपकर ही मिलता यहाँ, खुशियों का बागान
 

जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास 
 

सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज


सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज


उपकरणों का ढेर है, सुविधा का सामान
धरती बंजर हो रही, मिटे खेत खलियान


फिसल गई ज्यों शब्द से, टेढी हुई जुबान
अपना ही घर फूंकते,विवादित से बयान


मन भी गुलमोहर हुआ, प्रेम रंग गुलजार
ह्रदय वसंती मद भरा ,गीत झरे कचनार 
 

समय लिख रहा माथ पर,उमर फेंटती ताश
तन धरती पर रम रहा, मन चाहे आकाश


संवादों में हो रहा, शब्दों से आघात
हरा रंग वह प्रेम का, झरते पीले पात

शशि पुरवार  

Friday, May 11, 2018

दोहे - बेबस हुआ सुकून

जंगल कटते ही रहे, सूख गए तालाब 
बंजर होते खेत में, ठूँठ खड़े सैलाब 

जीवन यह अनमोल है, भरो प्रेम का रंग
छोटे छोटे पल यहाँ, बिखरे मोती चंग 

हरी भरी सी वाटिका, है जीवन की शान 
बंद हथेली खुल गई, पल में ढहा मकान 

कतरा कतरा बह रहा, इन आँखों से खून 
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून 

बेगैरत होने लगे, कलयुग के इंसान 
लालच का व्यापार है, स्वाहा होती जान 

रात रात भर झर रहे, कोमल हरसिंगार 
मदमाती सी चाँदनी, धरती का श्रृंगार 

आकुलता उर में हुई, मन में फिर कुहराम 
ताना बाना बुन दिया, दुर्बलता के नाम 

राहों  में मिलते रहे, अभिलाषा के वृक्ष 
डाली से कटकर मिला अवसादों का कक्ष 

सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज 
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज 

शशि पुरवार 





Monday, May 7, 2018

आँगन की धूप

धूप आंगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
हो रही नींव जर्जर
धूर में लिपटी हवेली

शहर की तीखी चुभन में 
नेह का आँगन नहीं है
गूँजती किलकारियों का
फूल सा बचपन नहीं है

शुष्क होते पात सारे
बन रहें है इक पहेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली

छोड़ आये गॉँव में हम
कहकहों के दिन सुहाने
गर्म शामें तप रही हैं
बंद कमरों के मुहाने

रेशमी अहसास सारे
झर गए चंपा चमेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली

गर्मियों में ढूँढ़ते हैं
वृक्ष की परछाईयों को
पत्थरों पर लिख गयी, उन
प्रेम की रुबाइयों को

मौन क्यों संवाद सारे
सिर्फ माँ है इक सहेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
शशि पुरवार









Wednesday, April 18, 2018

मन का हो उपचार


गंगा के तट पर सभी, मानव करते काम
धोना कपडा व पूजा, धरम करम के नाम
धरम करम के नाम, करें तर्पण  चीजों का
पाप पुण्य संग्राम, विषैला मन बीजों का
कहती शशि यह सत्य, न करो नदी से पंगा    
अतुल गुणों की खान, विषैली होती  गंगा  


२ 
माता तेरे द्वार का, खुला हुआ  दरबार 
भक्त सभी आतें यहाँ, मन का हो उपचार   
मन का हो उपचार, न कोई संकट आये 
भ्रम का मायाजाल, मन को ही भरमाये 
कहती शशि यह सत्य, खुला यहीं बही खाता 
मत करना बदनाम, जगत जननी है माता

3


बौराया सा दिन गया, अलसायी सी शाम
रात चिट्ठियाँ लिख रही, चंदा तेरे नाम
चंदा तेरे नाम, लिखी प्रेम भरी पाती
सपनों का संग्राम, नींद ना रातों आती
शशि कहती यह सत्य, प्रीत  में डूबी काया
दिन हो चाहे रात, मुदित तन मन बौराया। 

शशि पुरवार

Monday, March 26, 2018

प्रेम नगर अपवाद



तन इक  मायाजाल है, जीवन का परिधान
मन सुन्दर अमृत कलशा,तन माटी प्रतिमान1

ढोंगी ने चोला पहन, खूब करे पाखंड
भगवा वस्त्रों को मिला, कलुषित मन का दंड2

 

सरपट दौड़ी रेलगाड़ी , छोड़ समय की डोर 

मन ने भरी उड़ान फिर , शब्द हुए सिरमौर 3


 
कर्म ज्योति बनकर जले, फल का नहीं प्रसंग
राहों में मिलने लगे, सुरभित कोमल रंग4


मन में बैचेनी बढ़ी, साँस हुई हलकान
दिल भी बैठा जा रहा, फीकी सी मुस्कान5


मौलिकता खोने लगी , स्वार्थ हुआ आबाद
पत्थर दिल में ढूँढ़ते, प्रेम नगर अपवाद 6


दो पल की है जिंदगी, आगा पीछा छोड़
हँसकर जी ले तू जरा, मन के बंधन तोड़7 

शशि पुरवार 

Sunday, March 18, 2018

माँ हृदय की झंकार में -


माँ बसी हो, तुम हृदय की

साज में, झंकार में 
चेतना जागृत करो माँ
इस पतित संसार में.

आस्था का एक दीपक
द्वार तेरे रख दिया
ज्योति अंतर्मन जली
उल्लास, मन ने चख लिया
शक्ति का आव्हान करके
पा लिया ओंकार में. 
माँ बसी हो, तुम हृदय की
साज में, झंकार में

पाप फैला है जगत में
अंत पापी का करो
शौर्य का पर्याय हो, माँ
रूप काली का धरो
जन्म देती, जगत जननी
बीज को आकार में.
माँ बसी हो, तुम हृदय की 
साज में, झंकार में

छंद वैदिक, मंत्र गूँजे
भावना रंजित हुई
सजग होती आज नारी,
जीत अभिव्यंजित हुई
माँ नहीं, तुमसा जहाँ में,
 

नेह के उद्गार में.
माँ बसी हो, तुम हृदय की
साज में, झंकार में
शशि पुरवार 

आप सभी को चैत्र नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ 

Friday, March 9, 2018

मन की उड़ान


दो पल की है जिंदगी, आगा पीछा छोड़
हँसकर जी ले तू जरा, मन के बंधन तोड़

सरपट दौड़ी रेलगाड़ी , छोड़ समय की डोर 
मन ने भरी उड़ान फिर , शब्द हुए सिरमौर 

लेखक बनते ही गए, जन जन की आवाज
पाठक ही सरताज है, रचना के दमसाज

बर्फ हुई संवेदना, बर्फ हुए संवाद
खुरच खुरच कर भर रहे, तनहाई अवसाद


प्रिय तुम्हारे प्रेम की, है विरहन को आस
दो शब्दों में सिमट गया, जीवन का विन्यास
 ५
मन में बैचेनी बढ़ी, साँस हुई हलकान
दिल भी बैठा जा रहा, फीकी सी मुस्कान

कर्म ज्योति बनकर जले, फल का नहीं प्रसंग
राहों में मिलने लगे, सुरभित कोमल रंग

शशि पुरवार



Thursday, February 22, 2018

भोर सुहानी

 
1

भोर सुहानी सुरमयी, पीत वर्ण श्रृंगार
हल्दी के थापे लगे, फूलों खिली बहार

2
भोर नर्तकी आ गयी, जगा धूप गॉँव
स्वर्ण मोहिनी गुनगुनी, सिमटी बैठी छाँव


सुबह ठुमकती आ गयी, तम से करे किलोल
पंख पसारे रश्मियाँ, स्वर्ण कुण्ड निर्मोल

4

भोर रचाये लालिमा, कलरव का अधिमान
दूर देश से आ रहा, किरणों का यजमान

5

कुहरे में लिपटी हुई, सजकर आई भोर
धूप चिट्ठियाँ बाँचती, कोमल कमसिन डोर

6
स्वर्णिम किरणों ने लिखा, स्याह भोर पर नाम
राहें पथरीली मगर, मंजिल का पैगाम
7

बाँच रहा है धुंध को, किरणों का संसार
ओढ़ रजाई प्रीत की, सर्दी आयी द्वार

8

पत्र ख़ुशी के लिख रहा, सर्दी का त्यौहार
रंग गुलाबी बाग़ में, गंधो का उपहार

9

कुहरे में लिपटी हुई छनकर आयी भोर
नुक्कड़ पर मचने लगा, गर्म चाय का शोर
10

तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती,हवा फटकती सूप

11

भोर स्वप्न वह देखकर, भोरी हुई विभोर
फूलों का मकरंद पी, भौरा है चितचोर
12
भोर सुहानी आ गयी ,लिये टमाटर लाल
धरती रक्तिम हो गयी ,देख गुलाबी थाल।
13
घिरा हुआ है मेघ से ,सूरज का रंग - रूप
रही स्वर्ण किरणें मचल, कैसे बिखरे धूप

14
धूप चिरैया ने लिए, अपने पंख पसार
पात पात भी कर रहे, किरणों से अभिसार। 
१५ 
भोर रचाये लालिमा, कलरव का अधिमान
दूर देश से आ रहा, किरणों का यजमान
१६ 
ओढ़ चुनरिया प्रीत की, सजकर आई भोर 
 
धूप रंगोली द्वार पर, मन है आत्मविभोर . 
 
शशि पुरवार

जेन जी का फंडा सेक्स, ड्रिंक और ड्रग

    आज की युवा पीढ़ी कहती है - “ हम अपनी शर्तों पर जीना चाहते हैं समय बहुत बदल गया है   ….  हमारे माता पिता हमें हर वक़्त रोक टोक करते हैं, क्...

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