shashi purwar writer
Friday, February 15, 2019
Wednesday, February 13, 2019
१
शहरों की यह जिंदगी, जैसे पेड़ बबूल
मुट्ठी भर सपने यहाँ, उड़ती केवल धूल
उड़ती केवल धूल, नींद से जगा अभागा
बुझे उदर की आग, कर्म ही बना सुहागा
कहती शशि यह सत्य, गूढ़ डगर दुपहरों की
कोमल में के ख्वाब, सख्त जिंदगी शहरों की
२
चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान
दंभ भरे इंसान, नयन ना गीले होते
स्वारथ का सामान, बोझ रिश्तों का ढोते
कहती शशि यह सत्य, शिथिल बगिया का माली
शब्द प्रेम के बोल, नहीं चाँदी की थाली
३
धरती भी तपने लगी, अंबर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़
फूलों वाला बाग़, सुवासित तन मन होता
धूप में जला बदन, हरित खेमे में सोता
कहती शशि यह सत्य, प्रकृति पल पल मरती
मत काटो हरित वन, लगी तपने यह धरती
४
हम तुम बैठे साथ में, लेकिन पसरा मौन
सन्नाटे को चीर कर, गंध बिखेरे कौन
गंध बिखेरे कौन, अजब रिश्तों का मेला
मौन करे संवाद, अबोलापन ही खेला
कहती शशि यह सत्य, हृदय रहता है गुमसुम
छेड़ो कोई तान, साथ जब बैठें हम तुम
५
दिल में इक तूफ़ान है, भीगे मन के कोर
पत्थर से टकरा गई, लहरें कुछ कमजोर
लहरें कुछ कमजोर, विलय सागर में होती
गहरे तल में झाँक, छिपे हैं कितने मोती
कहती शशि यह सत्य, तमाशे हैं महफ़िल में
बंद हृदय का द्वार, दफ़न पीड़ा है दिल में
६
मन में जब लेने लगी, शंकाएँ आकार
सूली पर फिर चढ़ गया, इक दूजे का प्यार
इक दूजे का प्यार, फूल ना खिलने पाएँ
चुभते शूल हजार, शब्द जहरी बन जाएँ
कहती शशि यह सत्य, दरार पड़ी दरपन में
प्रेम बहुत अनमोल, भरे जो खुशियाँ मन में
शशि पुरवार
शहरों की यह जिंदगी, जैसे पेड़ बबूल
मुट्ठी भर सपने यहाँ, उड़ती केवल धूल
उड़ती केवल धूल, नींद से जगा अभागा
बुझे उदर की आग, कर्म ही बना सुहागा
कहती शशि यह सत्य, गूढ़ डगर दुपहरों की
कोमल में के ख्वाब, सख्त जिंदगी शहरों की
२
चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान
दंभ भरे इंसान, नयन ना गीले होते
स्वारथ का सामान, बोझ रिश्तों का ढोते
कहती शशि यह सत्य, शिथिल बगिया का माली
शब्द प्रेम के बोल, नहीं चाँदी की थाली
३
धरती भी तपने लगी, अंबर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़
फूलों वाला बाग़, सुवासित तन मन होता
धूप में जला बदन, हरित खेमे में सोता
कहती शशि यह सत्य, प्रकृति पल पल मरती
मत काटो हरित वन, लगी तपने यह धरती
४
हम तुम बैठे साथ में, लेकिन पसरा मौन
सन्नाटे को चीर कर, गंध बिखेरे कौन
गंध बिखेरे कौन, अजब रिश्तों का मेला
मौन करे संवाद, अबोलापन ही खेला
कहती शशि यह सत्य, हृदय रहता है गुमसुम
छेड़ो कोई तान, साथ जब बैठें हम तुम
५
दिल में इक तूफ़ान है, भीगे मन के कोर
पत्थर से टकरा गई, लहरें कुछ कमजोर
लहरें कुछ कमजोर, विलय सागर में होती
गहरे तल में झाँक, छिपे हैं कितने मोती
कहती शशि यह सत्य, तमाशे हैं महफ़िल में
बंद हृदय का द्वार, दफ़न पीड़ा है दिल में
६
मन में जब लेने लगी, शंकाएँ आकार
सूली पर फिर चढ़ गया, इक दूजे का प्यार
इक दूजे का प्यार, फूल ना खिलने पाएँ
चुभते शूल हजार, शब्द जहरी बन जाएँ
कहती शशि यह सत्य, दरार पड़ी दरपन में
प्रेम बहुत अनमोल, भरे जो खुशियाँ मन में
शशि पुरवार
Saturday, February 2, 2019
धूप आँगन की
नमस्कार मित्रों आपसे साझा करते हुए बेहद प्रसन्नता हो रही है कि--
शशि पुरवार का दूसरा संग्रह * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।
धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई धूप की आग है । हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप का आँगन
क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें। आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले। आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।
शशि पुरवार
शशि पुरवार का दूसरा संग्रह * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।
धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई धूप की आग है । हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप का आँगन
क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें। आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले। आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।
शशि पुरवार
Friday, January 11, 2019
Monday, January 7, 2019
फगुनाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
आँगन के हर रिश्तें में
गरमाहट ले आना
दुर्दिन वाली काली छाया फिर
घिरने ना पायें
सोना उपजे खलियानों में
खुशहाली लहरायें
सबकी किस्मत हो गुड़ धानी
नरमाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
हर मौसम में फूल खिलें पर
बंजर ना हो धरती
फुटपाथों पर रहने वाले
आशा कभी न मरती
धूप जलाए, नर्म छुअन सी
फगुनाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
ठोंगी कपटी लोगों के तुम
टेढ़े ढंग बदलना
बूढ़े घर की दीवारों के
फीके रंग बदलना
जर्जर होती राजनीति की
कुछ आहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
भाग रहे सपनों के पीछे
बेबस होती रातें
घर के हर कोने में रखना
नेह भरी सौगातें
धुंध समय की गहराए पर
मुस्काहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
आँगन के हर रिश्तों में
गरमाहट ले आना
शशि पुरवार
Thursday, December 20, 2018
हम आंगन के फूल
आंगन के हर फूल से, करो न इतना मोह
जीवन पथ में एक दिन, सहना पड़े बिछोह
सहना पड़े बिछोह, रीत है जग की न्यारी
होती हमसे दूर, वही जो दिल को प्यारी
कहती शशि यह सत्य, रंग बदलें उपवन के
फूल हुए सिरमौर, ना महकते आंगन के
चाहे कितनी दूर हो, फिर भी दिल के पास
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस
भ्रात मिलन की आस, डोर रेशम की जोड़े
मन में है विश्वास , द्वार से मुख ना मोड़े
कहती शशि यह सत्य, मथो तुम मन की गाहे
इक आँगन के फूल, मिलन हो जब हम चाहें
शशि पुरवार
जीवन पथ में एक दिन, सहना पड़े बिछोह
सहना पड़े बिछोह, रीत है जग की न्यारी
होती हमसे दूर, वही जो दिल को प्यारी
कहती शशि यह सत्य, रंग बदलें उपवन के
फूल हुए सिरमौर, ना महकते आंगन के
चाहे कितनी दूर हो, फिर भी दिल के पास
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस
भ्रात मिलन की आस, डोर रेशम की जोड़े
मन में है विश्वास , द्वार से मुख ना मोड़े
कहती शशि यह सत्य, मथो तुम मन की गाहे
इक आँगन के फूल, मिलन हो जब हम चाहें
शशि पुरवार
Saturday, November 17, 2018
बूढ़ा हुआ अशोक
बरसों से जो खड़ा हुआ था
बूढ़ा हुआ अशोक
बूढ़ा हुआ अशोक
हरी भरी शाखों पर इसकी
खिले हुए थे फूल
लेकिन मन के हर पत्ते पर
जमी हुई थी धूल
आँख समय की धुँधली हो गई
आँख समय की धुँधली हो गई
फिर भी ना कोई शोक
मौसम की हर तपिश सही है
फिर भी शीतल छाँव
जो भी द्वारे उसके आया
लुटा नेह का गॉँव
बारिश आंधी लाख सताए
पर झरता आलोक
आज शिराओं में बहता है
पानी जैसा खून
अब शाखों को नोच रहें हैं
अपनों के नाखून
बूढ़े बाबा की धड़कन में
ये ही अपना लोक
बरसों से जो खड़ा हुआ था
बूढ़ा हुआ अशोक
बूढ़ा हुआ अशोक
शशि पुरवार
Saturday, October 20, 2018
दर्द तीखे हँस रहे
खेल है यह जिंदगी के
टूटना मुझको नहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
क्यों परीक्षा ले रहा रब
हर कदम पर इम्तिहां है
तोड़ती निष्ठुर हवाएं
पास साहिल भी कहाँ है
दूर तक जाना मुझे, पर
रास्ता दुर्गम मही है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
बेबसी मुझको सताती
नाँव पथ में डगमगाती
पंख मेरे कट रहें हैं
जिंदगी भी लड़खड़ाती
शूल पाँवों में चुभें, फिर
नित संभलना भी यहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
शब्द मन में उड़ रहें है
भाव हिय में फँस रहें है
तन शिथिल कैसे चलूँ मै
दर्द तीखे हँस रहें है
क्या खता मेरी बता दे
बात दिल की अनकहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
खेल है यह जिंदगी के
टूटना मुझको नहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
शशि पुरवार
२० / ११/ २१०८
टूटना मुझको नहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
क्यों परीक्षा ले रहा रब
हर कदम पर इम्तिहां है
तोड़ती निष्ठुर हवाएं
पास साहिल भी कहाँ है
दूर तक जाना मुझे, पर
रास्ता दुर्गम मही है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
बेबसी मुझको सताती
नाँव पथ में डगमगाती
पंख मेरे कट रहें हैं
जिंदगी भी लड़खड़ाती
शूल पाँवों में चुभें, फिर
नित संभलना भी यहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
शब्द मन में उड़ रहें है
भाव हिय में फँस रहें है
तन शिथिल कैसे चलूँ मै
दर्द तीखे हँस रहें है
क्या खता मेरी बता दे
बात दिल की अनकहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
खेल है यह जिंदगी के
टूटना मुझको नहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
शशि पुरवार
२० / ११/ २१०८
Thursday, September 20, 2018
विकलांगता
विकलांगता ख्याल आते ही
मन में सहानुभूति जन्म लेती है
कहीं वितृष्णा, कहीं लापरवाही
कहीं बेचारगी, कभी दुत्कार।
यह अपरिपक्व मन के विकार है
शरीर या मन का विकृत अंग जिसे
काट नहीं सकतें, सहला सकतें है
अपने नर्म हाथों से, प्रेम भरी बातों से।
जीवन की खूबसूरती पर
उनका भी हक है।
उनका भी हक है।
विकलांगता,
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है।
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है।
जो तन से परे मन को विक्षिप्त करता है।
जीवन लाचार नहीं, वरदान है।
भीख मत मांगो जिंदगी से ,
लड़ो अपने मन की अपंगता से।
बेचारगी तोड़ देगी सम्बल तुम्हारा
पर मत लड़ो खुद से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से,
गिर पड़े गर अपनी नजर में तो
फिर कैसे उठोगे ।
कुछ कर गुजरने की चाह गर दिल में है
तो छू लो आसमान को
पाँव तले होगी जमीं
पाँव तले होगी जमीं
तुम्हारे मजबूत इरादों की,
जीत लोगे जंग हालातों से
विकलांगता अभिशाप नहीं है। अपितु
प्रेम की नरम छुअन बदल देगी
किसी एक का जीवन
शशि पुरवार
किसी एक का जीवन
शशि पुरवार
Monday, September 17, 2018
हौसलों के गीत - गजल
जिंदगी अनमोल है नित, हौसलों के गीत गाना
हर कमी तन की भुलाकर, साथ जग के मुस्कुराना
जिस्म गर विकलांग है तो, तुम बदलना सोच अपनी
लिख सकोगे नव इबारत, भाग्य हाथों से बनाना
तन अपाहिज है नहीं मन, मर्ज को ताकत बनाओ
जग हँसे या मीत रूठे, पीर को मत गुनगुनाना
दर्द की मीठी लहर, जब, देह मन को चीर देगी
टूटना मत, नित सँभलना, ख्वाब आँखों में सजाना
राह पथरीली बहुत ही, हर कदम पर इंतिहाँ है
समय के निष्ठुर पहर पर, दीप आशा के जलाना
हर कमी तन की नहीं, मन की हमेशा सोच होती
नजरिया जग का बदलना, और खुल कर मुस्कुराना।
शशि पुरवार
हर कमी तन की भुलाकर, साथ जग के मुस्कुराना
जिस्म गर विकलांग है तो, तुम बदलना सोच अपनी
लिख सकोगे नव इबारत, भाग्य हाथों से बनाना
तन अपाहिज है नहीं मन, मर्ज को ताकत बनाओ
जग हँसे या मीत रूठे, पीर को मत गुनगुनाना
दर्द की मीठी लहर, जब, देह मन को चीर देगी
टूटना मत, नित सँभलना, ख्वाब आँखों में सजाना
राह पथरीली बहुत ही, हर कदम पर इंतिहाँ है
समय के निष्ठुर पहर पर, दीप आशा के जलाना
हर कमी तन की नहीं, मन की हमेशा सोच होती
नजरिया जग का बदलना, और खुल कर मुस्कुराना।
शशि पुरवार
Tuesday, August 28, 2018
एक पहेली
१
सुबह सवेरे रोज जगाये
नयी ताजगी लेकर आये ना सखी धूप
२
३
रोज,रात -दिन, साथ हमारा
४
तुमसे ही संसार हमारा तुमको पाकर हुई धनवान
ना सखी ज्ञान।
५
रोज सुबह चुपके से आना
हौले से फिर नींद उड़ाना
देख न पाती तुमको जी भर
क्या सखि साजन?
न सखी, दिनकर।
६
बहुत दिनों में मिलने आया
जब आया तब मन हर्षाया
तन मन बरसा, पवित्र नेह
क्या सखि साजन ?
ना सखी मेह।
७
दिनभर आँखें वह दिखलाए
तन मन उससे निज घबराए
रूप बिगाड़े, क्यों अचरज ?
क्या सखि साजन ?
न सखी सूरज।
८
रातों को वह मिलने आए
सोने ना दे, नींद उड़ाए
बातें करते, बढे उन्माद
क्या सखि साजन
ना सखी याद
९
हर पल का है साथ हमारा
बिना तुम्हारे नहीं गुजारा
प्रिय दूर करे वह तन्हाई
क्या सखि साजन ?
ना परछाई
१०
उजला प्यारा रूप तुम्हारा
तुमको देखा दिल भी हारा
पहना है उलफत का फंदा
क्या सखि साजन ?
न सखी चंदा
Friday, August 24, 2018
जीवन अनमोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल दीपक की बाती सा जलकर
निश्चित इक दिन जाना
जीवन बना सुहाना
हँसकर तूफानों से लड़ना
सुख- दुख मन के झोल
पल पल खुशियां ढूंढ रहा है
जीवन यह अनमोल शशि पुरवार
चित्र गूगल से साभार
Friday, August 10, 2018
अधरों पर मुस्कान
बरखा रानी दे रही, अधरों पर मुस्कान
धान बुआई कर रहे, हर्षित भये किसान
हर्षित भये किसान, जगी मन में फिर आशा
पनपता हरित स्वर्ण, पलायन करे निराशा
कहती शशि यह सत्य, हुआ मौसम नूरानी
खिले खेत खलियान, बरसती बरखा रानी
बीड़ी,गुटका,तमाखू ,गांजा, मदिरापान
नष्ट हो गयी जिंदगी, पहुँच गयी शमशान
पहुँच गयी शमशान, फना जीवन की लीला
करा ना कोई काम, नशीला द्रव्य ही लीला
कहती शशि यह सत्य, कर्म में तन मन अटका
पाया तभी मुकाम, नशा है बीड़ी, गुटका
शशि पुरवार
धान बुआई कर रहे, हर्षित भये किसान
हर्षित भये किसान, जगी मन में फिर आशा
पनपता हरित स्वर्ण, पलायन करे निराशा
कहती शशि यह सत्य, हुआ मौसम नूरानी
खिले खेत खलियान, बरसती बरखा रानी
बीड़ी,गुटका,तमाखू ,गांजा, मदिरापान
नष्ट हो गयी जिंदगी, पहुँच गयी शमशान
पहुँच गयी शमशान, फना जीवन की लीला
करा ना कोई काम, नशीला द्रव्य ही लीला
कहती शशि यह सत्य, कर्म में तन मन अटका
पाया तभी मुकाम, नशा है बीड़ी, गुटका
शशि पुरवार
Thursday, August 9, 2018
व्यंग्य की घुड़दौड़ संग्रह
व्यंग्य की घुड़दौड़’ सीधे शब्दों में ज़िन्दगी की घुड़दौड़ है। ठीक उसी तरह, जैसे बेतरतीब सड़कों पर थमे बिना चलते रहना, कड़कते तेल के छौंक की खुशबू का चिमनी में सिमटना, प्रेम की सौंधी खुशबू का जीवन से प्रस्थान करना, जिंदगी की आसमान को छूने की दौड़ या इक दूजे से आगे निकलने की होड़ में ख़ुद को भूल जाना, उड़ने की ख़्वाहिश में गुदगुदाते पलों का बिखरना, जीवन से कहकहों का रूठ कर सिमटना, एक अंतहीन प्यास की चाहत में ख़ुद से बेरुखी करना या समय के इस चक्र में खुद को मूर्ख बनाना, खुशफहमी का जामा पहनना, जिसका अहसास हमें ही स्वयं भी नहीं होता है, खुद को धोखा देकर आभासी पलों को जीना, ज़िन्दगी के हर, पल समय को हराने के लिए भागना। कहीं कुछ छूट रहा है कहीं दिल टूट रहा है। समय के पलटते पन्नों ने वर्तमान में जीवन की तस्वीर को बदल दिया है। सोशल मीडिया ने जहाँ दुनिया को आपस में जोड़ा है, वहीं जिंदादिली को मार कर अकेलेपन को भी जोड़ा है। कहीं हम अवसाद के घेरे में न आ जाएँ, आओ चलो कहकहों को चुराएँ। परिवेश से बिखरी हुई संवेदनाओं को समेटकर उसमें व्यंग्य का हल्का सा छौंक लगा दें। संजीदगी को फिर से ज़िन्दगी की घुड़दौड़ बना दें। आपके प्यार को हम अपना सिरमौर बना लें। व्यंग्य की घुड़दौड़ को अपने दिल से लगा लें।
शशि पुरवार
Wednesday, July 11, 2018
सुख की क्यारी
१
भारी सिर पर बोझ है, ना उखड़ी है श्वास
राहें पथरीली मगर, जीने में विश्वास
जीने में विश्वास, सधे क़दमों से चलना
अधरों पर मुस्कान, न मुख पर दुर्दिन मलना
कहती शशि यह सत्य, तोष है सुख की क्यारी
नहीं सालता रोग, काम हो कितने भारी
जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास
ठहर गया मधुमास, गजब का दिल सौदागर
बूँद बूँद भरने लगा, प्रेम अमरत्व की गागर
कहती शशि यह सत्य, उधेड़ों मन की सीवन
भरो सुहाने रंग, मिला है सुन्दर जीवन
शशि पुरवार

भारी सिर पर बोझ है, ना उखड़ी है श्वास
राहें पथरीली मगर, जीने में विश्वास
जीने में विश्वास, सधे क़दमों से चलना
अधरों पर मुस्कान, न मुख पर दुर्दिन मलना
कहती शशि यह सत्य, तोष है सुख की क्यारी
नहीं सालता रोग, काम हो कितने भारी
जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास
ठहर गया मधुमास, गजब का दिल सौदागर
बूँद बूँद भरने लगा, प्रेम अमरत्व की गागर
कहती शशि यह सत्य, उधेड़ों मन की सीवन
भरो सुहाने रंग, मिला है सुन्दर जीवन
शशि पुरवार
Friday, July 6, 2018
गीतों में बहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ तनहा रहना।
तन्हाई में भीतर का
सन्नाटा भी बोले
कथ्य वही जो बंद ह्रदय के
दरवाजे खोले।
अनुभूति के,अतल जलधि को
शब्द - शब्द कहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ तनहा रहना।
बंद पलक में अहसासों के
रंग बहुत बिखरे
शीशे जैसा शिल्प तराशा
बिम्ब तभी निखरे।
प्रबल वेग से भाव उड़ें जब
गीतों में बहना।
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ तनहा रहना।
गहन विचारों में आती, जब
भी कठिन हताशा
मन मंदिर में दिया जलाती
पथ की परिभाषा
तन -मन को रोमांचित करती
सुधियों को गहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ तनहा रहना।
-- शशि पुरवार
कुछ तनहा रहना।
तन्हाई में भीतर का
सन्नाटा भी बोले
कथ्य वही जो बंद ह्रदय के
दरवाजे खोले।
अनुभूति के,अतल जलधि को
शब्द - शब्द कहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ तनहा रहना।
बंद पलक में अहसासों के
रंग बहुत बिखरे
शीशे जैसा शिल्प तराशा
बिम्ब तभी निखरे।
प्रबल वेग से भाव उड़ें जब
गीतों में बहना।
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ तनहा रहना।
गहन विचारों में आती, जब
भी कठिन हताशा
मन मंदिर में दिया जलाती
पथ की परिभाषा
तन -मन को रोमांचित करती
सुधियों को गहना
कभी कभी, अच्छा लगता है,
कुछ तनहा रहना।
-- शशि पुरवार
Saturday, June 16, 2018
बच्चों वाले खेल
उत्सव की वह सौंधी खुशबू
ना अंगूरी बेल
गली मुहल्ले भूल गए हैं
बच्चों वाले खेल
लट्टू, कंचे, चंग, लगौरी
बीते कल के रंग
बचपन कैद हुआ कमरों में
मोबाइल के संग
बंद पड़ी है अब बगिया में
छुक छुक वाली रेल
गली मुहल्ले भूल गए हैं
बच्चों वाले खेल.
बारिश का मौसम है, दिल में
आता बहुत उछाव
लेकिन बच्चे नहीं चलाते
अब कागज की नाव
अंबिया लटक रही पेड़ों पर
चलती नहीं गुलेल
गली मुहल्ले भूल गए हैं
बच्चों वाले खेल.
दादा - दादी, नाना - नानी
बदल गए हालात
राजा - रानी, परी कहानी
नहीं सुनाती रात
छत पर तारों की गिनती
सपनों ने कसी नकेल
गली मुहल्ले भूल गए हैं
बच्चों वाले खेल.
शशि पुरवार
Monday, June 11, 2018
हीरे सा प्रतिमान
उमर
सलोनी चुलबुली,
सपन
चढ़े परवान
आलोकित
शीशा लगे,
हीरे
सा प्रतिमान1
एक
सुहानी शाम का,
दिलकश
हो अंदाज
मौन
थिरकता ही रहे ,
हृदय
बने कविराज2
मन
के रेगिस्तान में,
भटक
रही है प्यास
अंगारों
की सेज पर,
जीने
का अभ्यास3
निखर
गया है धूप में,
झरा
फूल कचनार
गुलमोहर
की छाँव में,
पनप
रहा है प्यार4
कुर्सी
पर बैठे हुए,
खुद
को समझे दूत
संकट
छाया देश पर,
ऐसे
पूत कपूत5
पाप
पुण्य का खेल है,
कर्मों
का आव्हान
पाखंडी
के जाल में ,
मत
फँसना इंसान6
झूम
रही है डालियाँ,
बूॅंद
करे उत्पात
बरखा
रानी आ गई,
भीगे
तन मन पात 7
आॅंगन
में बरगद नहीं,
ना
शहरों से गाॅंव
ना
चौपाले नेह की,
घड़ियाली
है छाॅंव 8
चाँदी
की थाली सजी,
फिर
शाही पकवान
माँ
बेबस लाचार थी,
दंभ
भरे इंसान 9
शशि पुरवार
Monday, June 4, 2018
टेढी हुई जुबान
भोर
हुई मन बावरा,
सुन
पंछी का गान
गंध
पत्र बाँटे पवन,
धूप
रचे प्रतिमान
पानी
जैसा हो गया,
संबंधो
में खून
धड़कन
पर लिखने लगे,
स्वारथ
का कानून
आशा
सुख की रागिनी,
जीवन
की शमशीर
गम
की चादर तान कर,
फिर
सोती है पीर
सोने
जैसी जिंदगी,
हीरे
सी मुस्कान
तपकर
ही मिलता यहाँ,
खुशियों
का बागान
जीवन
तपती रेत सा,
अंतहीन
सी प्यास
झरी
बूँद जो प्रेम की,
ठहर
गया मधुमास
सत्ता
में होने लगा,
जंगल
जैसा राज
गीदड़
भी आते नहीं,
तिड़कम
से फिर बाज
सत्ता
में होने लगा,
जंगल
जैसा राज
गीदड़
भी आते नहीं,
तिड़कम
से फिर बाज
उपकरणों
का ढेर है,
सुविधा
का सामान
धरती
बंजर हो रही,
मिटे
खेत खलियान
फिसल
गई ज्यों शब्द से,
टेढी
हुई जुबान
अपना
ही घर फूंकते,विवादित
से बयान
मन
भी गुलमोहर हुआ,
प्रेम
रंग गुलजार
ह्रदय
वसंती मद भरा ,गीत
झरे कचनार
समय
लिख रहा माथ पर,उमर
फेंटती ताश
तन
धरती पर रम रहा,
मन
चाहे आकाश
संवादों में हो रहा, शब्दों से आघात
हरा
रंग वह प्रेम का,
झरते
पीले पात
शशि पुरवार
Friday, May 11, 2018
दोहे - बेबस हुआ सुकून
जंगल कटते ही रहे, सूख गए तालाब
बंजर होते खेत में, ठूँठ खड़े सैलाब
जीवन यह अनमोल है, भरो प्रेम का रंग
छोटे छोटे पल यहाँ, बिखरे मोती चंग
हरी भरी सी वाटिका, है जीवन की शान
बंद हथेली खुल गई, पल में ढहा मकान
कतरा कतरा बह रहा, इन आँखों से खून
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून
बेगैरत होने लगे, कलयुग के इंसान
लालच का व्यापार है, स्वाहा होती जान
रात रात भर झर रहे, कोमल हरसिंगार
मदमाती सी चाँदनी, धरती का श्रृंगार
आकुलता उर में हुई, मन में फिर कुहराम
ताना बाना बुन दिया, दुर्बलता के नाम
राहों में मिलते रहे, अभिलाषा के वृक्ष
डाली से कटकर मिला अवसादों का कक्ष
सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज
शशि पुरवार
बंजर होते खेत में, ठूँठ खड़े सैलाब
जीवन यह अनमोल है, भरो प्रेम का रंग
छोटे छोटे पल यहाँ, बिखरे मोती चंग
हरी भरी सी वाटिका, है जीवन की शान
बंद हथेली खुल गई, पल में ढहा मकान
कतरा कतरा बह रहा, इन आँखों से खून
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून
बेगैरत होने लगे, कलयुग के इंसान
लालच का व्यापार है, स्वाहा होती जान
रात रात भर झर रहे, कोमल हरसिंगार
मदमाती सी चाँदनी, धरती का श्रृंगार
आकुलता उर में हुई, मन में फिर कुहराम
ताना बाना बुन दिया, दुर्बलता के नाम
राहों में मिलते रहे, अभिलाषा के वृक्ष
डाली से कटकर मिला अवसादों का कक्ष
सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज
शशि पुरवार
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