Monday, April 20, 2015

कागा -- मन के भोले

 


एक ही धुन
भरनी है गागर
फूल सगुन

दर्द की नदी
कहानी लिख रही
ये नई सदी
 ३ 
तन के काले
मूक सक्षम पक्षी
मुंडेर संभाले

कर्कश बोली
संकट पहँचाने
कागा की टोली

मूक है प्राणी
कौवा अभिमानी
कोई न सानी।

भोली सूरत
क्यों कागा बदनाम
छलिया नाम

कोयल साथी
धर्म कर्म के नाम
कागा खैराती
--- शशि पुरवार
आपके समक्ष एकसत्य घटना साझा करना चाहती हूँ कोई माने या ना माने एक सत्य को मैंने यह सत्य करीब से जिया है , इस निरीह प्राणी को स्नेह समझ आता है बोली समझ आती है। एक दो पोस्टिंग पर मैंने यह अनुभव लिया है , कौवा रोज सुबह रसोईघर की खिड़की पर बैठकर वही भोजन मेरे हाथों से खाता था जो बनाती थी , धीरे धीरे उसके भाव समझने की कोशिश की तब यह आश्चर्य था उसे जो भी चाहिए उस वस्तु पर हाथ रखो तो वही खाने के लिए कॉँव कॉँव करता था , जो नहीं चाहिए उस पर से नजर हटा दी । कोई और दे तो नहीं खाता था घर वाले हैरान थे वह मेरी बात समझ रहाहै जब वह शहर छोड़ा तब २ दिन कागा ने कुछ नहीं खाया , ट्रक में जैसे ही सामान भर गया, मैंने किसी का रोदन सुना , कोई आसपास नहीं दिखा , तब एक पेड़ पर वही कौवा बैठा था , उसके गले की हलचल और आवाज देखकर मै हैरान थी कि पक्षी रो रहा है। वहां खड़े लोगों ने यह आश्चर्य देखा है। सोचा जाते जाते पानी पिला देती हूँ पानी भर कर रखा  वहउतरा किन्तु उसने पानी नहीं पिया। यह हृदय को छू गयी सत्य घटना है जिसने कागा के लिए मेरी सोच बदल दी। स्नेह सर्वोपरि है.

  मेरे लिएयह रोमांचकारी था ,एक किस्सा और बताती हों मै जब मावा बनाती थी तब वह मावा विशेष रूप से पसंद करता था जब तक नहीं दो कॉँव कॉँव बंद ही नहीं होती थी। यह हमें ज्ञात है कि पशुपक्षी केलिए घी तेल हानिकारक होते हैं इसीलिए ऊँगली में जरा सा मावा रखकर खिड़की से बाहर हाथ रखती थी और वह इधर उधर ऐसे देखता था कि कोई देख तो नहींरहा और चुपचाप हाथ पर रखा मावा नजाकत से चोंच से उठाकर खाता था , , यहमूक प्राणी कोई भी हों स्नेह समझतें है और वफादारी भी निभातें है। ऐसे रोमांच जीवनपर्यन्त यादगार होतें है , मै हरजगह किसी न किसी मूक प्राणी से रिश्त बनाने का प्रयास जरूर करतीं हूँ।

Friday, April 10, 2015

आईना सत्य कहता है।



  लघुकथा

आज आईने में जब खुद का अक्स देखा तो ज्ञात हुआ  वक़्त कितना बदल गया है। जवां दमकते चहरे, काले बाल, दमकती त्वचा के स्थान पर श्वेत केश, अनुभव की उभरी लकीरें, उम्र की मार से कुछ ढीली होती त्वचा ने ले ली है, झुर्रियां अपने श्रम की  कहानी बयां कर रही हैं।  उम्र को धोखा देने वाली वस्तुओं पास मेज पर  बैठी कह रही थी मुझे आजमा लो किन्तु  मन  आश्वस्त था इसीलिए इन्हे आजमाने का मन  नहीं हुआ. चाहे लोग बूढ़ा बोले किन्तु आइना तो सत्य कहता है।  मुझे आज भी आईने के दोनों और आत्मविश्वास से भरा, सुकून से लबरेज मुस्कुराता चेहरा ही नजर आ रहा है। उम्र बीती कहाँ है, वह तो आगे चलने के संकेत दे रही है। होसला अनुभव , आत्मविश्वास आज भी कदम बढ़ाने के लिए  तैयार है। 
शशि  पुरवार

Wednesday, March 25, 2015

आदमी ने आदमी को चीर डाला है।




चापलूसों का
सदन में बोल बाला है
आदमी ने आदमी
को चीर डाला है

आँख से अँधे
यहाँ पर कान के कच्चे
चीख कर यूँ बोलतें, ज्यों 
हों वही सच्चे.
राजगद्दी प्रेम का
चसका निराला है

रोज पकती है यहाँ
षड़यंत्र की खिचड़ी
गेंद पाले में गिरी या
दॉंव से पिछड़ी
वाद का परोसा गया
खट्टा रसाला है

आस खूटें बांधती है
देश की जनता
सत्य की आवाज को
कोई नहीं सुनता
देख अपना स्वार्थ
पगड़ी को उछाला है
आदमी ने आदमी को चीर डाला है
-- शशि पुरवार

Thursday, March 19, 2015

पहचान


वाह अपना लंगोटिया यार कितना बड़ा आदमी हो गया है, जानी मानी हस्ती है, अपने को कैसे भूल सकता है, जब उसके बुरे दिन थे तब कितनी मदद की थी। महाशय दम्भ में भरे हुए बचपन के सखा से मिलने गए, साथ में एक दो चम्मच को भी ले गए , थोड़ा रॉब तो झाड़ दिया जाए ……… अपनी तो गाडी निकल पड़ेगी।

पर वहां तो चमचों की लाइन लगी पड़ी थी, अब गुड की ढेली आ गयी है तो मक्खियाँ तो भिनभिनायेंगी।
ऐसे में इन महाशय को कौन पूछता, पर महाशय आज मिलने का विचार का साफा पहनकर ही बैठे थे।

बड़े बड़े कद वाले दोस्त आये, सबसे मिले फिर महाशय से कहा - कहो भाई कैसे आना हुआ, क्या काम है।

महाशय बड़े खुश---- अपने यार ने पहचान लिया। पीठ पर धौल मालकर गले लग गए --- यार केशु कैसा है?

पर यह क्या --- अरे अरे कौन हो भाई -- ये क्या कर रहे हो --- जरा सा मीठा क्या बोल लिया -- सर पर बैठे जा रहे हो।
" तुम मुझे नहीं पहचान रहे ,कैसे भूल सकते हो " महाशय अचकचा गए.

तुम जैसे लोग बेफ़्कूफ होतें है, जब काम था, अब काम ख़त्म , हमसे फ़ायदा उठाने की सोचना भी मत --- तुमने काम किया तो हमने भी तुम्हारा काम किया हिसाब ख़त्म। …।

कड़कती आवाज ने निर्देश दिया ---चौकीदार आगे से ध्यान रखना ऐसे लोग अंदर नहीं आने चाहिए।
चढ़ते सूरज को हर कोई सलाम करता है।
-- शशि पुरवार

Thursday, March 5, 2015

भंग दिखाए रंग - होली है




होरी आई री सखी ,दिनभर करे धमाल
हरा गुलाबी पीत रंग , बरसे नेह गुलाल .1

द्वारे  पे गोरी खड़ी ,  पिया  गए परदेश
नेह सिक्त  पाती लिखी ,आओ पिया स्वदेश2

भेद भाव से दूर ये  ,होरी का त्यौहार
डूबा जोशो जश्न में , यह सारा संसार 3

होरी के  हुडदंग में , हुरियारों की जंग
मिल जाए जो  सामने ,फेको उस पर रंग .4

अम्मा से बाबू कहे , खेलें  होरी  आज
कहा तुनक कर उम्र का , कुछ तो करो लिहाज .5

होरी की अठखेलियाँ , पकवानों में भंग
बिना बात किलकारियाँ , भंग दिखाए रंग 6


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 कुण्डलियाँ
होली के हुडदंग में , हुरियारों की जंग
मिल जाए जो सामने,  उस पर फेको  रंग
फेको उस पर रंग , नीले पीले गुलाबी
घेरो  सब चहुँ ओर, यह टोली है नबाबी
मस्ती का उन्माद , संग मित्रों के ठिठोली
जोश जश्न उल्लास , खेलो प्रेम की होली .

हाइकु -


होली है प्यारी
रंग भरी पिचकारी 
सखियाँ न्यारी


 मारे गुब्बारे
लाल पीले गुलाबी
रंग लगा रे

प्रेम की होली
दूर बैठी सखियाँ
मस्तानी टोली

होली की मस्ती
प्रेम का  है खजाना
दिलों की बस्ती


चढ़ा के भंग
मौजमस्ती संग
बजाओ चंग

    -----  शशि पुरवार
आप सभी ब्लॉगर मित्रों को होली की हार्दिक रंग भरी शुभकामनाएँ

Monday, February 23, 2015

अब कहाँ जाएँ।





बाहर की आवाजों का शोर,
सड़क रौंदती
गाड़ियों की चीख
जैसे मन की पटरी पर
धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ी
और इन सब से बेचैन मन
शोर शराबे से दूर,
एक बंद कमरे में
छोड़ा मैंने बोझिल मन को ,
निढाल होते तन के साथ
नर्म बिस्तर की बाहों में
शांति से बात करने के लिए
पर अब पीछा कर रही थीं
श्वासोच्छवास की दीर्घ ध्वनि
धड़कनों की पदचाप
बंद पलकों में
चहलकदमी करने लगीं पुतलियाँ
उमड़ते हुए विचारों की भीड़
करने लगी कोलाहल
अंतर की हवा में ज्यादा प्रखर है प्रदुषण
खुद से भागते हुए
शांति की तलाश में अब कहाँ जाएँ।
- शशि पुरवार

Monday, February 16, 2015

गम की हाला - नवगीत



होठों पर मुस्कान सजाकर
हमने, ग़म की
पी है हाला

ख्वाबों की बदली परिभाषा
जब अपनों को लड़ते देखा
लड़की होने का ग़म ,उनकी
आँखों में है पलते देखा
छोटे भ्राता के आने पर
फिर ममता का
छलका प्याला 

रातों रात बना है छोटा
सबकी आँखों का तारा
झोली भर-भर मिली दुआये
भूल गया घर हमको सारा
छोटे के
लालन - पालन में
रंग भरे सपनो की माला

बेटे - बेटी के अंतर को
कई बार है हमने देखा
बिन मांगे,बेटा सब पाये
बेटी मांगे, तब है लेखा
आशाओं का
गला घोटकर
अधरों , लगा लिया है ताला
-- शशि पुरवार

Monday, February 9, 2015

रोजी रोटी की खातिर





रोजी रोटी की खातिर,फिर
चलने का दस्तूर निभाये
क्या छोड़े, क्या लेकर जाये
नयी दिशा में कदम बढ़ाये।

चिलक चिलक करता है मन
बंजारों का नहीं संगमन
दो पल शीतल छाँव मिली, तो
तेज धूप का हुआ आगमन

चिंता ज्वाला घेर रही है
किस कंबल से इसे बुझाये।

हेलमेल की बहती धारा
बना न, कोई सेतु पुराना
नये नये टीले पर पंछी
नित करते हैआना जाना

बंजारे कदमो से कह दो
बस्ती में अब दिल न लगाये।

क्या खोया है, क्या पाया है
समीकरण में उलझे रहते
जीवन बीजगणित का परचा
नितदिन प्रश्न बदलते रहते

अवरोधों के सारे कोष्टक
नियत समय पर खुलते जाये।
 -- शशि पुरवार

Monday, February 2, 2015

मौसम ठिकाने आ गए



आ गए जी आ गए
मौसम ठिकाने आ गए
सूर्य ने बदला जो रस्ता
दिन सुहाने आ गए।

धुंध कुहरे की मिटाने
ताप छनकर आ रहा
खेत में बैठा बिजूखा
धुप से गरमा रहा
धूप की
अठखेलियों के
दिन पुराने आ गए।

प्रेम पाती बाँचकर, यह
स्वर्ण किरणें चूमती
इंद्रधनुषी रंग पहने
तितलियाँ भी झूमती
स्वप्न आँखों में
बसंती
दिल चुराने आ गए।

नींद से जागा शहर
टहलाव,
सड़कों पर मिला
सुगबुगाती टपरियोँँ पर
चुसकियों का सिलसिला
लॉन में फिर
चाय पीने
के बहाने आ गए।

बात करते खिलखिलाते
साथ जोड़े चल रहे
घाट पर गप्पें लड़ाते
कुछ समय को छल रहे
हाथ नन्हे डोर थामे
नभ रिझाने आ गए
   --- शशि पुरवार




Monday, January 26, 2015

६६ गणत्रंत्र दिवस



आप सभी भारतीय मित्रों को ६६ वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ , जय हिन्द - जय भारत

सीना चौड़ा कर रहे ,वीर देश की शान
हर दिल चाहे वर्ग से ,करिए इनका मान
करिए इनका मान , हमें धरती माँ प्यारी
वैरी जाये हार , यह जननी है हमारी
दिल में जोश उमंग ,देश की खातिर जीना
युवा देश की शान ,कर रहे चौड़ा सीना .

- शशि पुरवार

Sunday, January 25, 2015

गजल - वक़्त लुटेरा है




कुछ पलों का घना अँधेरा है
रैन के बाद ही सवेरा है.

जग नजाकत भरी अदा देखे
रात्रि में चाँद का बसेरा है.

हर नियत पाक दिल नहीं होती
जाल सठ का बुना घनेरा है.

रंज जीवन नहीं रजा ढूंढो
हर कदम हर्ष का फुलेरा है.

इश्क है हर नदी को सागर से
इल्म है जोग भी निबेरा है.

मै मसीहा नहीं मुसाफिर हूँ
मुफलिसी ने मुझे ठठेरा है.

जिंदगी इम्तिहान लेती है
वक़्त सबसे बड़ा लुटेरा है।
- शशि पुरवार

Sunday, January 18, 2015

कुण्डलियाँ - भाग रही है जिंदगी,


1
भाग रही है जिंदगी, कैसी जग में दौड़
चैन यहाँ मिलता नहीं, मिलते अंधे मोड़
मिलते अंधे मोड़, वित्त की होवे माया
थोथे थोथे बोल, पराया लगता साया
जलती कुंठा आग, गुणों को त्याग रही है
कर्मो का सब खेल, जिंदगी भाग रही है

 2
थोडा हँस लो जिंदगी , थोडा कर लो प्यार
समय चक्र थमता नहीं , दिन जीवन के चार
दिन जीवन के चार  ,भरी  काँटों  से  राहे
हिम्मत कभी न हार , मिलेगी सुख की बाहें
संयम मन में घोल , प्रेम से नाता जोड़ा
खुशिया चारो ओर , भरे घट  थोडा थोडा
-- शशि पुरवार

Tuesday, January 13, 2015

नदिया तीरे


१ 
नया विहान
शब्दों का संसार
रचें महान

झुकता नहीं
आएं लाख तूफ़ान
डिगता नहीं

मन चंचल
मचलता मौसम
सर्द है रात

नदिया तीरे
झील में उतरता
हौले से चंदा

बिखरे मोती
धरती के अंक में
फूलों की गंध

एक शाम
अटूट है बंधन
दोस्ती के नाम

साथ तुम्हारा
महका तन मन
प्यार सहारा
 शशि पुरवार

Thursday, January 1, 2015

उम्मीदें हैं कुछ खास







 
नववर्ष के हाइकु

नव  उल्लास
उम्मींदों का सूरज
मीठी सुवास
धूप सोनल
गुजरा हुआ कल
स्वर्णिम पल
नवउल्लास
खिड़की से झाँकता
 वेद प्रकाश
 स्वर्ण किरण
रोम रोम निखरे
धरा दुल्हन
गुजरा वक़्त
जीवन की परीक्षा
ना लागे सख्त
-- शशि पुरवार


नवगीत -

नये वर्ष से है ,हम सबको
उम्मीदें  कुछ खास

आँगन के बूढ़े बरगद की
झुकी हुई  डाली
मौसम घर का बदल गया, फिर
विवश हुआ  माली
ठिठुर रहे है सर्द हवा में
भीगे से अहसास

दरक गये दरवाजे घर के
आँधी थी आयी
तिनका तिनका उजड़ गया फिर
बेसुध है  माई
जतन कर रही बूढी साँसे
आये कोई पास

चूँ चूँ करती नन्हीं  चिड़िया
समझ नहीं पाये
दुनियाँ उसकी बदल गयी है
कौन उसे  बताये
ऊँची ऊँची अटारियों पे
सूनेपन का वास

नए वर्ष का देख आगवन
पंछी  गाते गीत
बागों की कलियाँ भी झूमे
भ्रमर का संगीत
नयी ताजगी ,नयी उमंगें
मन में  है उल्लास

नये वर्ष से है हम सबको
उम्मीदें कुछ खास।


शशि पुरवार 

समस्त ब्लॉगर परिवार और स्नेहिल मित्रों को सपरिवार नववर्ष   की हार्दिक शुभकामनाएँ
अनुभूति पत्रिका में प्रकाशित गीत -

Friday, December 19, 2014

चीखती भोर




चीखती भोर
दर्दनाक मंजर
भीगे हैं कोर


तांडव कृत्य
मरती संवेदना
बर्बर नृत्य


आतंकी मार
छिन गया जीवन
नरसंहार


मासूम साँसें
भयावह मंजर
बिछती लाशें


मसला गया 
निरीह बालपन 
व्याकुल मन
 फूटी   रुलाई
पथराई  सी आँखें
दरकी  धरा


१६ -  १७ दिसम्बर कभी ना भूलने वाला दिन है ,  पहले निर्भया  फिर बच्चों की चीखें ---  क्या  मानवीय संवेदनाएं   मरती जा रहीं है।  आतंक का यह कोहरा कब छटेगा।
    मौन  श्रद्धांजलि

Tuesday, December 16, 2014

सम्मान


सम्मान --
आज जगह जगह अखबारों में भी चर्चा है फलां फलां को सम्मान मिलने वाला है और हमारें फलां महाशय भी बड़े खुश हैं. वे  अपने मुंह  मियां मिट्ठू बने जा रहें है ----  एक ही गाना   गाये जा रहें है  .......... हमें तो सम्मान मिल रहा है .........
भाई,  सम्मान मिल रहा है, तो क्या अब तक लोग आपका अपमान कर रहें थे, लो जी लो यह तो वही बात हो गयी, महाशय जी ने पैसे देकर सम्मान लिया है और बीबी गरमा गरम हुई जा रहीं है .
ये २ रूपए के कागज के लिए इतना पैसा खर्च किया, कुछ बिटवा को दे देते, हमें कछु दिला देते। …… पर जे तो होगा नहीं। …
हाय कवि से शादी करके जिंदगी बर्बाद हो गयी। ………। दिन भर कविता गाते रहतें है , लोग भी वाह वाह करे को बुला लेते हैं, कविता से घर थोड़ी चलता है. अब जे सम्मान का हम का करें, आचार डालें ……। हाय री किस्मत कविता सुन सुन पेट कइसन भरिये……।
             अब क्या किया जाए, कवि  महोदय अपने सम्मान को सीने से चिपकाए फिर रहें हैं, फिर  बीबी रोये , मुन्ना रोये  चाहे जग रोये या  हँसे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा क्यूंकि भाई कविता की जन्मभूमि यह संवेदनाएं ही तो हैं. संवेदना के बीज से उत्पन्न कविता वाह वाह की कमाई तो करती ही है।  प्रकाशक रचनाएँ मांगते हैं , प्रकाशित करतें है, कवि की रचनाएँ अमिट हो जाती है, कवि भी अमर हो जाता है, पर मेहनताना कोई नहीं देता …………। फिर एक कवि का दर्द कोई कैसे  समझ सकता। वाह रे कविता सम्मान।
-- शशि पुरवार

Friday, December 12, 2014

"माँ सहेली खो गई है "






छोड़कर बच्चे गए जब
माँ अकेली हो गई  है
टूटकर बिखरी नहीं वो
इक पहेली हो गई है

स्वप्न आँखों में सजे थे
पुत्रवधू घर आएगी
दीप खुशियों के जलेंगे
सुख बिटिया का पायेगी

गाज सपनो पर गिरी, जब  
माँ सहेली खो गई है

पूछता कोई नहीं अब
दरकिनारा कर लिया है
मगन है सब जिंदगी में
बस सहारा हर लिया है।

गॉंव में रहती अकेली
माँ चमेली सो गई है
 
धुंध सी छायी हुई है
नेह, रिशतों के दरमियाँ
गर्म साँसें ढूंढती है
यह हिम बनी खामोशियाँ

दिन भयावह बन डराते
शब करेली हो गई  है
टूटकर बिखरी नहीं वो
इक पहेली हो गई है
-----  शशि पुरवार

Monday, November 24, 2014

रूखे रूखे आखर


हस्ताक्षर की कही कहानी
चुपके
से  गलियारों  ने
मिर्च
  मसाला
, बनती  खबरे
छपी
सुबह अखबारों में
.

राजमहल में बसी रौशनी
भारी
भरकम खर्चा है
महँगाई
ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों
की चर्चा है

रक्षक भक्षक बन बैठे है
खुले
आम दरबारों में

अपनेपन की नदियाँ सूखी,
सूखा  खून  शिराओं में
रूखे
रूखे आखर झरते    
कंकर फँसा निगाहों में

बनावटी
है मीठी वाणी
उदासीन
व्यवहारों में
 
किस पतंग की डोर कटी है
किसने
पेंच लडाये है
दांव
पेंच के बनते जाले
सभ्यता
पर घिर आये है

आँखे गड़ी हुई खिड़की पर 
होंठ नये आकारों. में.

------ शशि पुरवार


Monday, November 17, 2014

नन्ही परी

मेरे मायके में नन्ही परी भतीजी बनकर आई है। स्नेह आशीष के साथ नामकरण करना था, तो नामकरण कविता के रूप में किया। बुआ की तरफ से नन्ही निर्वी  के लिए स्नेहाशीष -
`


बदल गया हैं घर का मौसम , ऋतु खुशियों की है आई
नन्ही नन्ही ,प्यारी निर्वी , घर - अँगना  रौनक लाई
दादा - दादी ,नाना -नानी , भूले दुख के सब अंधियारे
बचपन के संग  डूब  गए , फैले  हैं  सुख के उजियारे
ताऊ- ताई, मौसा - मौसी ,सब दूर देश के वासी
बुआ -फूफा, सौम्या -अवनि ,बोलें हम भी है अभिलाषी
नटखट गुड़ियाँ ने छेड़ी  हैं , बजी सबके मन झंकार
वाट्स आप बाबा के जरिये , सभी  मिलकर बाँटें प्यार
दादी पम्मो , घर के सारे, नाते - रिश्ते, जीता है  बचपन 
किलकारी से गूँज रहा है देखो, अब अपना  घर - आँगन
-- शशि पुरवार

Monday, November 10, 2014

कच्चे मकान




सघन वन
व्योम तले अँधेरा
क्षीण किरण।

कच्चे मकान
खुशहाल जीवन
गॉंव, पोखर

सुख की ठॉंव
हरियाली जीवन
म्हारा गॉंव

चूल्हा औ चौका
घर घर से उड़ती
सौंधी खुशबु
  ५
वो पनघट
पनिहारिन बैठी
यमुना तट

खप्पर छत
गोबर से लीपती
अपना मठ
७ 
ठहर गया
आदिवासी जीवन
टूटे किनारे .

बिखरे पत्ते
तूफानों से लड़ते
जर्जर तन

दीप्त  किरण
अमावस की रात
लौ से हारी
१०
अल्लहड़ पन
डुबकियाँ लगाती
कागजी नाव

११
शीतल छाँव
आँगन का बरगद
पापा  का गाँव

१ २
अकेलापन
तपता रेगिस्तान
व्याकुल मन
१३ 
गर्म हवाएँ
जलबिन तड़पें
मन, मछली

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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