Wednesday, July 4, 2012

बारिश की बूंदे.....



बारिश की बूंदे
जरा जोर से बरसो
घुल कर बह जाये आंसू
न दिखे कोई गम
जिंदगी में नहीं मिलती है
जो , ख़ुशी चाहते हम ...!

अंदर -बाहर है तपन
दिल में लगी अगन
दर्द की भी चुभन
झिम झिम बरसे जब सावन
क्या अम्बर क्या नयन
बह जाये सारे गम
बूंदे जरा जोर से बरसो
भीग जाये तन -मन ....!

टप-टप करती बूंदे
छेड़े है गान
पवन की शीतलता
पात भी करे बयां

सौधी
  खुशबु नथुनो से
रूह तक समाये
चेहरे पर पड़ती बूंदे
मन के चक्षु खोल
अधरो पे मुस्कान बिछाये
गम की लकीरें पेशानी से
कुछ जरा कम हो जाये
बूंदे जरा जोर से बरसो ...!

:--शशि पुरवार
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एक क्षणिका भी छोटी सी --

आई बारिश
खिल उठा मन
झूम उठा मौसम
जीभ को लगी अगन
चाय -पकोड़े का
थामा दामन ,
गर्म प्याली चाय की
ले एक चुस्की , और
भूल जा सारे गम
इन खुशगवार पलों का
है बस आनंदम ....!
-----शशि पुरवार

Wednesday, June 27, 2012

पलों का बहुत है मोल ........!

 
राही जीवन है अनमोल
पलों का बहुत है मोल
सफ़र को बना सुहाना
बस हँसते हुए पग बढ़ाना .

टेढ़े -मेढ़े है रास्ते
न कोई ठौर , न ठिकाना
मंजिल अभी है दूर
सफ़र नया अनजाना
बस हँसते हुए ,
हे राही ,
आगे पग बढ़ाना .

कभी सावन -भादो
कभी पतझड़ का आना
फिसलन भरी है पगडण्डी
और हवा का भी,
बेरुखी से गुजर जाना
इन पटी हुई राहों में ,
हर पल है धोखा
राही खुद को भी जरा संभालना .

आएगा इक वक्त 
जब ठहर जायेंगे पल
थकित मन ,
सुप्त कदम ,
न मन में कोई उमंग , पर
तू न इससे घबराना
दिल को दे होसला
जीने का मिल जायेगा बहाना

जीवन तो है इक सफ़र
मृत्यु आती निश्छल ,
तू न इससे डर
जी ले जिंदगी के पलों को
सफ़र को बना सुहाना
बदल जायेंगे फिर समीकरण
बस हसंते हुए कदम बढ़ाना ....!

राही यह जीवन हैअनमोल
तू संभल कर पग बढ़ाना ..............!
:--- शशि पुरवार

Thursday, June 21, 2012

ख्वाब ,..........!


ख्वाब ,
दिल के प्रांगण में
सदा लहलहाते

पलकों की छाँव तले
ख्वाबों के परिंदे
कभी उड़ते ,कभी थमते
दिल के कल्पवृक्ष
पे सदा चहचहाते
गुलशन महकाते .

वक्त  से पहले
नसीब से ज्यादा
नहीं भरता
जिंदगी का प्याला ,
आशाओं के बीज
रोपते ,नहीं रूकते
वृक्ष ख्वाबों के
फलते फूलते
दिल के प्रांगण को
सदा महकाते .

झिलमिलाती आशाएं
खिलखिलाते सपने
हिंडोले लेता मन मयूर
कर्म की भूमि पर
हाथों की लकीर के
आगे नतमस्तक ,
फिर भी ख्वाब ,
कभी नहीं हारते .

ख्वाब, दिल के प्रांगण
सदा लहलहाते ,
खिलखिलाते ......!

:--शशि पुरवार
दोस्तों ,आज मेरेसपने , मेरे  ब्लॉग को एक वर्ष पूरा हो गया और आप सभी का बहुत स्नेह मिला ......! अपना स्नेह बनाये रखें .
कल का दिन खास है  , आप सभी के साथ यह पल और अनमोल होगा ,सपने और उड़न भरेंगे और कलम में नया रंग भी ......:)
 

Tuesday, June 19, 2012

मेरी संगिनी ......!

 
1 )मन का हठ
दिल की है तड़प
रूठी कलम .

2)कहाँ से लाऊं
विचारो का प्रवाह
शब्द है ग़ुम.

3)कैसे मनाऊं
कागज कलम को
हाथ से छुठे .

4)मेरी संगिनी
कलम तलवार
पक्की सहेली
5)
प्यासा मन
साहित्य की अगन
ज्ञानपिपासा .
6)
प्यासी धरती
है तपती रेत सी
मेघ बरसो .

7) समंदर के
बीच  रहकर  भी
रहा मै प्यासा .
8 )
अश्क आँखों से
सुख गए है  जैसे 
है रेगिस्तान .
9)
प्यासी ममता
तड़पता आँचल
गोदभराई .

:--शशि पुरवार 


 

Monday, June 18, 2012

तपती जून में.........

चिलचिलाती धूप
चुभती गर्मी
तन मन की
प्यास बढाए.

जलती आँखें
चुभती साँसें
पपड़ाये होठ
बहता घाम
तेज वारा
पवन भी
भरमाए.

जलती धरा पे
पड़ी जो बूंद
भाप बन
उड़ जाए
पथिक को
मिले न चैन
उमस तो
घिर -घिर आए.

बरसो हे ,इन्द्र
रिमझिम -रिमझिम
तपती जून में
थोड़ी सी माटी
की खुशबु
हवा में घुल जाए

बदले जो रूख
हवा का जरा
मौसम खुशगवार
बन जाए
फिजा की
बदली करवट
तन मन की
प्यास बुझाये ...!

:-- शशि पुरवार

Saturday, June 16, 2012

उड़े चिरैया


उड़े चिरैया
पंख फडफडाए
सूख रहे पात
भानू जलाए
जोहे है वाट
बदरा बुलाए...!

बहे न नीर
सूखे झरने ,तालाब
मचा हाहाकार
बंजर होते खेत
किसान बेहाल
फसल कैसे उगाये
घटाएँ जल्दी आ जाएँ ..!

तप रही भू
पवन भी जले
लू के थपेड़े
पंछी , प्राणी पे पड़े
सूखे कंठ
जल को तरसे
तके नभ ,
मेघ बुलाए..!

बदरा जल्दी आ जाए ...!
:_-शशि पुरवार

Tuesday, June 5, 2012

..गंगा स्वर्ग से आई .....!



हुई विदाई
गंगा स्वर्ग से आई
बहे निर्मल .

गंगा का जल
गुणकारी अमृत
पाप नाशक .

शीतल जल
मन हो जाये तृप्त
है गंगाजल .

रोये है गंगा
मैली हुई चादर
मानवी मार .

सिमटी गंगा
मानव काटे अंग
जल बेहाल .

है पुण्य कर्म
किये पाप मिटाओ
गंगा बचाओ .

गंगा पावन
अभियान चलाओ
स्वच्छ बनाओ .

निर्मल गंगा
खुशहाल जीवन
हरी हो धरा .

:------ शशि पुरवार

Saturday, June 2, 2012

शिशु सा मन ....!



आँखों का पानी 
बनावट के फूल 
कच्चे है धागे .

घना कोहरा 
नजरो का है फेर 
गहरी खाई .

रूई सा फाहा 
नजरो में समाया 
उतरी मिस्ट .

कोई न जाने 
दर्द दिल में बंद 
बेटी पराई .

अकेलापन 
मन की उतरन 
अँधेरी रात .


सफ़र संग 
छटती हुई धुंध 
कटु सत्य .

चटक लाल 
प्राकृतिक खुमार    
अमलतास .


तीखी चुभन 
घुमड़ते बादल
तेज रफ़्तार .


खारा लवण
कसैला हुआ मन 
समुद्री जल .

उड़ता पंछी
पिंजरे में जकड़ा 
है परकटा .

तेज हवा में 
सुलगता है दर्द 
जमती बर्फ .

उफना दर्द 
जख्म बने नासूर 
स्वाभिमान के .

शिशु सा मन 
ढूंढता है आँचल 
प्यार से भरा .
     :--शशि पुरवार






 

Tuesday, May 8, 2012

तपन की है प्यास


१) जलता भानु
उष्णता की चुभन
रातें भी नम.

२) रसीली आस
तपन की है प्यास
शीतल जल .

३) कैरी का पना
आम की बादशाई
खूब है भाई .

४ ) बर्फ का गोला
रंगबिरंगी कुल्फी
गर्मी भगाई

५ ) पानी की तंगी
मचा है हाहाकार
गर्मी की मार .

6) वृक्ष रोपण
सुरक्षा का कवच
है हरियाली .
------------------
दो तांका--

१) बीतता पल
सुनहरी डगर
भविष्य निधि
निर्माणधीन आज
कर्म की बढती प्यास .

२) कल की बाते
पीछे छूट जाती है
आने वाला है
भविष्य का प्रहर
नयी है शुरुआत .
-- शशि पुरवार
 
दोस्तो मै बाहर टूर पर होने  के कारण ब्लॉग पर नही आ सकती .वापिस आकर जल्दी ही आप सबसे मिलती हूँ तब तक के लिए आज्ञा दे ......आप सभी के दिन और गर्मियो के पल आनंदमयी हो .......इसी कामना के साथ आपसे विदा लेती हूँ . जून में आपसे मुलाक़ात होगी .
 

Saturday, April 28, 2012

जीवन मुट्ठी से फिसलती रेत....



जीवन मुट्ठी से फिसलती रेत
पल -पल बदलता
वक़्त का फेर
हिम्मत से डटे रहना
यहीं है कर्मो का खेल !

हर आहट देती है
सुनहरे कदमो के निशां
चिलचिलाती धुप में
नंगे पैरों से चलकर
बनता है आशियाँ !

छोड़ो बीती बातें
मुड के न देखना
वक़्त जीने का है कम
रस्सी को ज्यादा न खेचना !

जीवन आस की पगडण्डी
इसके टेढ़े -मेढ़े है रास्ते
आसां नहीं है यह पथ
हिम्मत कभी न छोड़ना

अथाह है जीवन का समंदर
प्यास बढती ही जाती
पार हो जायेगा तू , हे नाविक
हाथों से इसको खेना !

उम्र न ठहरेगी एक पल
जी ले प्राणी,
तू मन का चंचल
मौत आएगी चुपके से
तब ख़त्म हो जायेगा यह सफ़र !

जीवन मुट्ठी से .............!

:-- शशि पुरवार
 

Saturday, April 21, 2012

देव नहीं मै

 
देव नहीं मै
साधारण मानव
मन का साफ़
बांटता हूँ मुस्कान

चुप रहता
कांटो पर चलता
कर्म करता
फल की चिंता नहीं

मन की यात्रा
आत्ममंथन , स्वयं
अनुभव से
छल कपट से परे

कभी दरका
भीतर से चटका
स्वयं से लड़ा
फिर से उठ खड़ा

जो भी है देखा
अपना या पराया
स्वार्थ भरा
दिल तोड़े जमाना

आत्मा छलनी
खुदा से क्या मांगना
अन्तः रूदन
मन को न जाना

शांत हो मन
छोड़ो कल की बात
जी लो पलो को
नासमझ जमाना
खुद को संभालना

:--शशि पुरवार

Tuesday, April 17, 2012

........यह जीवन .....

 
 ..........यह जीवन . ......
 यह जीवन
कर्म से पहचान
तन ना धन 
गुण से चार चाँद
आत्मिक है मंथन .

यह जीवन
तुझ बिन है सूना
हमसफ़र
वचन सात फेरे
जन्मो का है बंधन .

यह जीवन
कमजोर है दिल
चंचल मन
मृगतृष्णा चरम
कुसंगति लोलुप .

यह जीवन
एक खुली किताब
धूर्त इंसानों
से पटा सारा विश्व
सच्चाई जार जार .

यह जीवन
वक़्त पड़ता कम
एकाकीपन
जमा पूँजी है रिश्ते
बिखरे छन - छन .

यह जीवन
अध्यात्मिक पहल
परमानन्द
भोगविलासिता से
परे संतुष्ट मन .

यह जीवन
होता जब सफल
पवित्र आत्मा
न्यौझावर तुझपे
मेरे प्यारे वतन .

यह जीवन
नश्वर है शरीर
पवित्र मन
आत्मा तो है अमर
मृत्यु शांत निश्छल .

:--------शशि पुरवार
 

Sunday, April 15, 2012

अहंकार - पतन का मार्ग

आत्मा से चिपका
प्रयासों में घुसा
परिग्रह
... हुआ " मै "!
" मै " जब ठहरा
विस्तार हुआ ...
जागृत रूप में " मेरा ".
"मेरा " कब " अहं" बना ..?
अपरिग्रह .
अहंकार - पतन का मार्ग
आत्मा - निराकार
वस्तु - भोग विलास
"मै " , "अहं " !
अशांति , हिंसा की
प्रथम शुरुआत .
नहीं इसके संग
जीवन , शांति ,
विकास ,प्रगति का मार्ग .
जीने की राह ...!
आत्मसाध .
सरल सादा अंदाज
सभी निराकार .
              :- शशि पुरवार
जब मै का भाव  आत्मा से चिपक जाता है वक्त का सितम  शुरू  हो जाता है  एवम व्यक्ति इसके लिए खुदा को दोष देता है ......पर अहं हमारे भीतर प्रवेश करता है तो क्या अच्छा क्या बुरा सिर्फ "मै " ही दिखता है और यही से  पतन की  शुरुआत होती है    व  मानव खुद को ही सर्वोपरि मानता है ..........
                                           शशि पुरवार

Friday, April 13, 2012

रफ्ता -रफ्ता.....

रफ्ता -रफ्ता यादो के बादल छाते है
हम तेरे शहर से दूर अब जाते है .
 
वक्त का सितम तो कुछ कम नहीं है
पर तेरी बेरूखी से हम तो मरे जाते है .

ज़माने में रुसवा न हो जाये प्यार मेरा
चुपके से नजरे झुका के निकल जाते है .

इन्तिहाँ है यह सच्चे प्यार व इंतजार की
तेरी खातिर हम झूठी मुस्कान दिखाते है .

सदैव खुश रहे तू यही दुआ है मेरी
तेरी खातिर हम खुदा के दर भी जाते है .

रफ्ता -रफ्ता .......!

:---शशि पुरवार

Wednesday, April 11, 2012

वो पल वह मंजर.............!

 
वो पल
वह मंजर
लूटता सा ,
बिस्फारित नयन

वो लम्हा
दिल दहलता
विव्हल रूदन
चीत्कार
मचा हाहाकार
छितरे मानव अंग
बिखरा खून
सूखे नयन

उस क्षण
फैलती आँखे
रूक गयी साँसे
भयावह विस्फोट
गोलियों की बौछार
आतंकी तांडव
वो काली स्याह रात
मानवता की हार
चकित नयन

सुनसान रस्ते
भयभीत चेहरे
ठहरती धड़कन
आने वाला लम्हा
ख़त्म किसका जीवन
सिसकियाँ प्रार्थना
मौत का सामना
ठहर गया वक्त
छलकतेनयन
वो पल
वह मंजर .............!
:--शशि पुरवार
 

Monday, April 9, 2012

हरसिंगार.........2


   हरसिंगार
  जीने की आस
  बढ़ता उल्लास
  महकता जाये

  भीनी भीनी मोहक सुगंध
  रोम -रोम में समाये
 मदहोश हुआ मतवाला तन
बिन पिए नशा चढ़ता जाये
शैफाली के आगोश में लिपटा शमा
मधुशाला बनता जाये
पारिजात महकता जाये

संग हो जब सजन -सजनी
मन हरसिंगार
विश्वास -प्रेम के खिले फूल
जीवन में लाये बहार
प्यार का बढ़ता उन्माद
पल-पल शिउली सा
महकता जाये ...!

नयनो में समाया शीतल रूप
जीवन के पथ पर कड़कती धूप
न हारो मन के साथ
महकने की हो प्यास
कर्म ही है सुवास
मुस्काता उल्लास
जीवन हरसिंगार
महकता जाये ...!

:_---शशि पुरवार
 

Friday, March 30, 2012

हरसिंगार.....1

  
 
 
                          शिउली सौन्दर्य 
                         लतिका पे खिला 
                          गुच्छो में भरा 
                        पारिजात  लदा बदा

                     दुग्ध -उज्जवल शेफालिका
                     कोमल बासंती नाजुक अंग
                     शशि किरण में है बिखरा 
                    आच्छादित सौन्दर्य अपलक

                भीनी -भीनी मोहक सुगन्धित सुवास
                       रोम -रोम में समाये
                   मदमाती बयार इठलाये
                 निखरता शिवली का यौवन
                   अँखियो की प्यास बुझाए

                    होले-होले चुपके से
                   प्राजक्त रात्र में खिले
                    अंजुल भर -भर
                      हरसिंगार ,
                    झर -झर झरते
                धरा का नवल श्रृंगार करे   
                व  प्रकृति का उन्माद बढे   

                लजाती मोहिनी शेफाली
                मुस्काता चंचल बसंत
            प्राकृतिक सौन्दर्य की पराकाष्ठा
                   अप्रतिम अतुल्य
                    ईश्वरीय सृजन .
                       :_------शशि पुरवार

 

Wednesday, March 28, 2012

बिखरते रिश्ते ...!



                                     जीवन  के रुपहले पर्दे  से
                                        बिखरते रिश्ते ...!

                                        पतला होता खून 
                                        बढती धन की भूख 
                                        अपने होते है पराये 
                                      सुकून भी न घर में आए
                                       भाई को भाई न भाए
                                         सिमटते रिश्ते 

                                     क्या ननद क्या भौजाई
                                     प्यारी लागे सिर्फ कमाई
                                       सैयां मन को भावे
                                     कांच से नाजुक धागे 
                                  बूढ़े माँ - बाप भी बोझ लागे
                                     खोखले होते  रिश्ते 
 
                                     अब कहाँ वो आंगन 
                                    जहाँ खड़कते चार बर्तन 
                                     गूंजे अब न किलकारी 
                                    सिर्फ बंटवारे  की चिंगारी 
                                      स्वार्थी होता खून 
                                     टूटते  बिखरते रिश्ते .

                                      नादाँ ये न जाने 
                                      कैसे बीज है बोये 
                                 माँ के कलेजे के टुकड़े कर 
                                     कैसे चैन से सोये 
                                     आने वाला कल 
                                   खुद को दोहराता है 
                                  वक्त तब निकल जाता है 
                                   प्राणी तू अब क्यो रोये 
                                     पीछे छुटते रिश्ते .

                                           बिखरते रिश्ते ...!
                                                          :------शशि पुरवार

          

    

Wednesday, March 21, 2012

यह इंतजार ........!

                             
                                कहीं जान न ले यह इंतजार 
                                       क्या तुम्हे है ,
                                  इस बात का ख्याल ....!
                                     हर आहट देती है 
                                  तुम्हारे कदमो के निशां
                                  थम जाती है यह धड़कन 
                                  सोच कर तुम्हारा नाम 
                                   दीवानगी तो मेरी ...
                                न जाने क्या रंग दिखाएगी 
                                        पर सनम , 
                               इंतजार कराने की तुम्हारी 
                                    यह खता  तो ,
                               हमारी जान ही ले जाएगी ....!
                                           :-----  शशि पुरवार 
                   

Friday, March 16, 2012

नाजुक धागे .................बसा है बागवान .




तांका---------------      
                                १   आये  अकेले  
                                    दुनिया के झमेले 
                                    जाना है पार ,
                                   जिंदगी की किताब 
                                    नयी है हर बार .                     

                                 २  ढलती  उम्र 
                                    शिथिल है पथिक 
                                     अकेलापन ,
                                  जूझता है जीवन 
                                   स्वयं  के कर्मो संग .

                               ३  पैसे  का नशा 
                                  मस्तक पे है  चढ़ा 
                                    सोई चेतना ,
                                  नजर का है धोखा 
                                   वक्त जब बदला .

                               ४   यादो के पल 
                                   झिलमिलाता कल 
                                    महकता है ,
                                    दिलो के अरमान 
                                    बसा है बागवान .

                
                               ५   तेज रफ़्तार 
                                  दूर है  संगी -साथी 
                                     न परिवार ,
                                  जूनून है सवार 
                                 मृगतृष्णा की प्यास . 

                              ६  बालियो  संग 
                                 मचलता यौवन 
                                 ठिठकता सा  ,
                                 प्राकृतिक सौन्दर्य 
                                 लहलहाता वन .
                               
                                           
                                   
हयुक ------------------
                                  १  नाजुक धागे 
                                      मजबूत बंधन 
                                       गठबंधन .

                                   २ तीखी चुभन 
                                     सूखे गुलाब संग 
                                       दीवानापन .

                                   ३  सर्द है यादे 
                                    शूल बनी तन्हाई  
                                        हरे नासूर .

                                ४ प्यासा  है मन 
                                   साहित्य की अगन 
                                     ज्ञानपिपासा .

                                 ५  कलम करे 
                                    रचना का सृजन 
                                     मनभावन .
                          
                                ६    अभिव्यक्ति की 
                                     चरम अनुभूति 
                                       है स्पंदन .
                                                 :-------- शशि पुरवार
                          




                                     

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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